भारतीय लोकनाट्य की प्रमुख शैलियां

भारतीय लोकनाट्य की प्रमुख शैलियां

भारत में लोक रंगमंच का अभ्युदय 15वीं शताब्दी में हो चुका था। किंतु व्यापक रूप से इसका व्यवस्थित रूप 17वीं शताब्दी में सामने आया। यही वह समय था, जब भारत ने प्रायः सभी क्षेत्रों में लोकनाट्य मनोरंजन की विधा के रूप में उभरी। लोकनाट्य में निश्चित व्याकरण एवं शास्त्र सम्मत अनुशासन नहीं होता है। अभिनय के बजाय इसमें गायन वाचन एवं नृत्य पर विशेष जोर दिया जाता है। इनमें विदूषक की भूमिका भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। लोकनाट्य की प्रमुख विधाएं निम्न प्रकार है-

रामलीला या रासलीला

यह लोकनाट्य की धार्मिक विधाएं हैं। रामलीला में जहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन प्रसंगों का मंचन विशेष रूप से दशहरा के अवसर में किया जाता है। रासलीला करने वाले को रासधरिये कहते हैं। इनकी रासपार्टियां होती है।

जात्रा

जात्रा – शैली में ऐतिहासिक एवं पौराणिक प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। इसके लिए खुले स्थान पर मंच बनाए जाते हैं। लोक नाटक की क्षेत्रीय शैली का प्रभाव बिहार, बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा त्रिपुरा आदि में है। इस नाट्य शैली का प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु को माना जाता है। दुर्गा पूजा के समय जात्रा का आयोजन अधिक किया जाता है। इसमें मुख्य रूप से हारमोनियम, झांझ, मृदंग, ढोलक, तबला, मंजीरा एवं बिगुल आदि यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। जात्रा को यात्रा के नाम से भी जाना जाता है।

नौटंकी

लोक नाटक की इस शैली का प्रचलन उत्तर प्रदेश में अधिक है। नौटंकी की प्रस्तुति में सूत्रधार नाट एवं नटी की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होती है। मुख्य बाजे नगाड़ा होता है। संवादों की तुकबंदी आकर्षक होती है।

माचा

इस नाट्य शैली का जन्म स्थान उज्जैन माना जाता है। माचा या माच शब्द मंच को शब्दित करते हैं। इस मंच नाट्य शैली का प्रभाव मुख्य रूप से मध्यप्रदेश में है। होली के अवसर पर विशेष रूप से माचा का आयोजन किया जाता है।

पाला

लोक नाट्य शैली उड़ीसा में प्रचलित है। इसमें नाचने गाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। एक मुख्य गायक एवं कुछ सहयोगी गायक होते हैं। मृदा एवं चिमटा जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इसमें दो दलों के मध्य मुकाबले की भी परंपरा है। मनोरंजन के लिए हास्य कथाएं भी इस लोकनाट्य में प्रस्तुत की जाती है।

पटुआ

लोक नाट्य शैली में पटुआ नामक ग्रामीण गायकों का समूह उन गीतों की संगीत में प्रस्तुतियां देते हैं। जिनकी रचना ग्रामीण कवियों द्वारा धार्मिक एवं पौराणिक प्रसंगों पर की जाती है। इस दौरान कलाबाजी भी की जाती है। कलाबाज को घट पटवा कहते हैं।

दाशकाठिया

लोकनाट्य शैली का प्रचलन उड़ीसा में अधिक है। इसको दो व्यक्ति मिलकर प्रस्तुत करते हैं। एक व्यक्ति मुख्य गायक होता है, तो दूसरा सह-गायक के रूप में मुख्य गायक के गायन एवं अभिनय स्तरों में मदद करता है। पूरी नाट्य प्रस्तुति दो कलाकार मिलकर करते हैं।

मुगल तमाशा

उड़ीसा के बालासोर जनपद के भद्र क्षेत्र को मुगल तमाशा का प्रमुख केंद्र माना जाता है इसके जरिए नृत्य नाटिका प्रस्तुत की जाती है यह मुग़ल युग की झांकियां पेश करती है फारसी उर्दू उड़िया भाषाओं का इसमें प्रयोग होता है।

तमाशा

यह महाराष्ट्र प्रांत की लोक नृत्य शैली है जिसका विकास पेशवाओ के समय हुआ था। इस शैली में नृत्य नाटिका प्रस्तुत की जाती है।

कर्मा

कर्मा लोक नाटकीय शैली उत्सव के नृत्य के रूप में जानी जाती है। यह उत्सव नृत्य वर्षा ऋतु में कई दिनों तक चलता है।इसका प्रचलन मुख्य रूप से उड़ीसा व छत्तीसगढ़ में है। उत्सव नृत्य की विषय वस्तु धार्मिक पौराणिक एवं लोक कथाओं पर केंद्रित होती है। इस शैली की प्रमुख विशेषता यह है, कि इसमें दो दलों के मध्य प्रेम गीतों पर मुकाबला प्रश्न उत्तर के रूप में होता है।

ख्याल

राजस्थान में प्रचलित नृत्य नाटक की शैली है।इसमें गायन एवं वादन पर विशेष महत्व होता है। यह मनोरंजक होने के साथ शिक्षाप्रद भी है।

अंकिया नाट

एकांकी नाटक शैली का प्रचलन असम में है। इसमें रंगे हुए मुखोटे एवं गायन का विशेष महत्व होता है।जहां संस्कृत श्लोकों का प्रयोग होता है।वही ब्रज बोली एवं असमिया भाषा में प्रयुक्त होती है।

ढयाल

नृत्य नाटिका शैली का प्रचलन मुख्यता राजस्थान में है। इसके माध्यम से वहां लोक संस्कृति को संगीत के साथ अभिव्यक्त किया जाता है।

मुडियेतू

केरल में प्रचलित इस नृत्य नाटक शैली का स्वरूप अनुष्ठानिक है। इसका आयोजन मां काली के मंदिरों में किया जाता है।

भारतीय लोकनाट्य मुडियेतू
साभार : विकिपिडिया

जशिन

कश्मीर में प्रचलित लोक नाटकीय शैली व्यंग पर केंद्रित है।तथा इसका स्वरूप प्रहसन से मिलता-जुलता है। इसमें विदूषक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसके कलाकार भांड कहलाते हैं।

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