छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या व संभावित समाधान
प्रकृति की गोद वह लाल आतंक के दागदार दामन के साए में सिमटा छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग किसी परिचय का मोहताज नहीं है, चाहे हम बात उसकी भौगोलिक विविधता व प्राकृतिक सुंदरता की करें या उसके सांस्कृतिक विरासत की, बस्तर संभाग सदैव शीर्ष पर रहा है।
1967 में दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी नामक गांव से शुरू हुई जमीदारों के खिलाफ की सशस्त्र क्रांति चारू मजूमदार, कानू सान्याल व जंगल संथाल के नेतृत्व में फलीभूत होकर रेड कॉरिडोर के जरिए देश के 210 जिलों में पांव पसार चुकी थी जो सैन्यबलों के निरंतर प्रयास से देश के 54 जिलों में सिमट गया है परंतु इसमें छत्तीसगढ़ के 9 से अधिक जिलों का होना बेहद चिंताजनक है।
अगर हम बात बस्तर संभाग व नक्सलवाद की करें तो हम कह सकते हैं कि उसकी प्राकृतिक सुंदरता व बनावट ही इसके विकास का कारण बनी तो यह गलत नहीं होगा, दरअसल जब नक्सलवाद का प्रारंभ हुआ तो वह अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग कारणों से सामने आया, कई क्षेत्रों का नक्सलवाद जहां माओ-त्से-तुंग के विचार से प्रभावित दिखा तो कई क्षेत्र के नक्सलवाद में क्षेत्रीय प्रभाव हावी रहा जिसमें बस्तर संभाग भी शामिल है।
सभी क्षेत्र के नक्सलवादियों में एक विचारधारा “राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है” की समानता दिखाई देती है, जहां एक ओर दुनिया विकास की नई दिशा तय कर रही है वहीं नक्सलवादी इन क्षेत्रों के विकास के बाधक बने हुए हैं।
नक्सली आदिवासियों व गरीबों की हक की लड़ाई का दावा तो करते हैं पर दूसरी ओर बंदूक के बल पर क्रांति के कारण उनके जनजीवन को भी प्रभावित किए हुए हैं, नक्सलवादी मूल रूप से आर्थिक समानता की विचारधारा से प्रभावित रहे हैं जो सदैव उच्च वर्ग के खिलाफ आक्रामक विरोधाभास के रूप में उभर कर सामने आया है।
22 security personnel have lost their lives in the Naxal attack at Sukma-Bijapur in Chhattisgarh, says SP Bijapur, Kamalochan Kashyap
— ANI (@ANI) April 4, 2021
Visuals from the Sukma-Bijapur Naxal attack site pic.twitter.com/C3VvAdvjaN
बीते दिन हुए घटनाओं ने पुनः इस मुद्दे पर सोचने पर मजबूर किया है, अगर हम बात समाधान की करें तो कई पक्ष निकलकर सामने आते हैं।
प्रमुख समस्या अगर साक्षरता है तो हमें समाधान की पहली सीढ़ी यहीं से चढ़नी पड़ेगी, हमें यह प्रयास करना होगा की एक निश्चित शिक्षा अवधि तक की शिक्षा स्थानीय भाषाओं (जैसे गोंडी, हल्बी भाषा) में दी जाए जिससे उनमें अलगाव का भाव उत्पन्न ना हो व शिक्षा की मुख्यधारा में आसानी से जुड़ सकें, इनकी शिक्षा के लिए प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च स्तर पर विशेष ध्यान देना होगा साथ ही रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराने होंगे।
साक्षरता दर में वृद्धि होने की स्थिति में वे बाहरी समाज से आसानी से जुड़ सकेंगे व उनके अंदर विद्यमान सांस्कृतिक असुरक्षा का भाव आसानी से समाप्त हो सकता है।
दूसरा प्रयास हमें उनके स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि को लेकर करना होगा क्योंकि आंकड़े यह बताते हैं की उस क्षेत्र में हजार से ज्यादा मौतें डायरिया, मलेरिया व सिकलसेल की वजह से हो जाती हैं, इसके लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे व्यापक स्वास्थ्य कार्यक्रम के इंप्लीकेशन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, पीडीएस सिस्टम के आने की वजह से इस क्षेत्र की स्वास्थ्य समस्याएं कम तो हुई है पर पहले की तरह सुविधाओं का मोहताज भी है।
हमें तीसरा प्रयास जनसंपर्क बढ़ाने पर करना होगा जिसके लिए संचार साधनों, परिवहन की सुविधा को प्रमुखता से बढ़ावा देना होगा। साथ ही सरकार को व्यापक स्तर पर नक्सली उन्मूलन हेतु कार्यक्रम चलाने होंगे तथा चल रहे कार्यक्रमों की गति की तीव्रता यथोचित तय करने होंगे व नक्सली नेताओं के साथ संवाद पर भी काम करना होगा क्योंकि सीधा संवाद ना होना नक्सली समस्याओं को बनाए रखने का प्रमुख कारण है, उनके प्रकृति प्रेमी होने का सकारात्मक लाभ हम पर्यटन के विकास को बढ़ावा देकर ले सकते हैं।
नोट : यह लेखक के अपने विचार हैं।
✍🏻लेखक : जितेंद्र कुमार यादव