05 फरवरी 1922 को चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आन्दोलन को रोक दिया गया। जब आन्दोलन पूरे उफान पर था ऐसे में उसे अचानक बंद कर देने से बहुत से लोगों में असंतोष उत्पन्न हो गया। महात्मा गांधी को 06 साल के लिए जेल की सजा हो गई। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन में ठहराव आ गया। अब कांग्रेस ने खादी, चरखा, अछूतोद्धार आदि रचनात्मक कार्यों से लोगों को जोड़ने का कार्यक्रम निर्धारित किया। लेकिन बहुत से कांग्रेसी नेता इस नये कार्यक्रम में परिवर्तन की मांग करने लगे। परिवर्तनवादियों कहना था कि राजनीतिक आन्दोलन को पूरी तरह से बंद कर देने से जनता का कांग्रेस से जुड़ाव कम हो जाएगा।
स्वराज्य दल की स्थापना
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1922 के गया अधिवेशन में सी. आर. दास, मोतीलाल नेहरू आदि नेताओं ने कांग्रेस के नये कार्यक्रम का विरोध किया लेकिन सी. राजगोपालाचारी जैसे नेता कांग्रेस के गांधीवादी कार्यक्रम में किसी भी तरह के बदलाव के पक्ष में नहीं थे; इसलिए चितरंजन दास ने कांग्रेस से त्याग-पत्र दे कर स्वराज्य दल का गठन किया। स्वराज्य दल का उद्देश्य था 1923 के अंत में होने वाले आम चुनावों में भाग लेकर काउंसिल में प्रवेश करना ताकि काउंसिल के अंदर से 1919 ईस्वी के भारत शासन अधिनियम को अवरुद्ध किया जा सके। आखिरकार 1923 ईस्वी के सितंबर माह में दिल्ली में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में कांग्रेसियों को यह छूट दे दी गई कि वे चुनाव में भाग ले सकते हैं।
स्वराज दल की स्थापना के कारण
जनवरी 1923 ईस्वी में निम्नलिखित कारणों से स्वराज दल की स्थापना हुई।
- असहयोग आंदोलन के बंद हो जाने और गांधी जी के जेल चले जाने से राष्ट्रीय आंदोलन शिथिल पड़ गया था। निराश जनता में राष्ट्रीय चेतना के संचार के लिए स्वराज्य दल जैसे अन्य उपायों की जरूरत थी।
- खिलाफत आंदोलन भी बंद हो गया था इसलिए भी नए राजनीतिक कार्यक्रम की आवश्यकता थी।
- राष्ट्रीय आंदोलन के बंद हो जाने से सरकार का दमन-चक्र बहुत तेजी से चल रहा था ऐसी स्थिति में काउंसिल के अंदर जाकर इसका विरोध करना आवश्यक था।
- राष्ट्रवादी नेताओं की राजनीतिक उदासीनता का लाभ लेकर उदारवादी एवं अन्य लालची लोग विधान मंडलों में जा सकते थे अतः उन्हें रोकने के लिए काउंसिल प्रवेश जरूरी था।
इन कारणों और परिस्थितियों से प्रेरित होकर देशबंधु चितरंजन दास ने कांग्रेस के सभापति पद से और पंडित मोतीलाल नेहरू ने महामंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और जनवरी 1923 ईस्वी में स्वराज्य पार्टी की स्थापना की। स्वराज्य दल का पहला अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ जिसमें इसके संविधान और कार्यक्रम निर्धारित हुए।
बाद में कांग्रेस ने स्वराज्य दल को यह स्वतंत्रता दे दी कि वह चुनाव में भाग ले सके।
1924 ईस्वी में गांधीजी को खराब स्वास्थ्य के कारण जेल से रिहा कर दिया गया। गांधी जी ने स्वराज्य दल के काउंसिल प्रवेश के विचार से असहमत होने के बाद भी उन्हें अपना आशीर्वाद दिया। स्वराज्यवादियों ने भी महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया।
स्वराज्य दल का उद्देश्य
- स्वराज्य दल का मुख्य उद्देश्य भारत को औपनिवेशिक स्वराज दिलाना था।
- सरकार की नीतियों का विरोध करके उसके कामों में अड़ंगा डालना जिससे कि उसे अपनी नीतियों में परिवर्तन करने के लिए बाध्य होना पड़े।
- काउंसिल प्रवेश करके असहयोग के कार्यक्रम को काउंसिल के अंदर जारी रखना उनका मुख्य उद्देश्य था।
स्वराज्य दल के कार्यक्रम
स्वराज्य दल के निम्नलिखित कार्यक्रम थे-
- बजट को रद्द करना।
- दमनकारी कानूनों का विरोध करना।
- रचनात्मक कार्यों में कांग्रेस का सहयोग।
- काउंसिल के पदों पर अधिकार करना।
- नौकरशाही की शक्ति को सीमित करना।
- जनता में राजनीतिक चेतना का संचार करना।
स्वराज्य दल के कार्य और सफलता
1923 के सामान्य चुनावों में स्वराज्य दल को उम्मीद से अधिक सफलता मिली। संयुक्त प्रांत और केंद्रीय व्यवस्थापिका में काफी संख्या में इस दल के प्रत्याशी निर्वाचित हुए। बंगाल में इस दल का स्पष्ट बहुमत था। वहां के गवर्नर ने स्वराज दल के नेता चितरंजन दास को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। 1924 में स्वराज्य वादियों ने बंगाल के दो मंत्रियों के वेतन का प्रस्ताव अस्वीकार कर उन्हें त्यागपत्र करने के लिए बाध्य कर दिया। अगले साल गवर्नर को द्वैध शासन को असफल घोषित करना पड़ा। मध्य प्रांत में भी स्वराज्यवादियों ने द्वैध शासन को असफल साबित कर दिया।
सेंट्रल असेंबली के 145 स्थानों में 45 स्थान स्वराज्य वादियों को प्राप्त हुए। वहां स्वराज दल के नेता थे पंडित मोतीलाल नेहरू। वहां उन्होंने स्वतंत्र तथा राष्ट्रवादी सदस्यों से गठबंधन कर अपना बहुमत बनाया और सरकार के कार्यों में अड़ंगा डालना शुरू किया।
स्वराज्य दल की नीति में परिवर्तन
स्वराज्य दल की अड़ंगा लगाने वाली नीति ज्यादा कारगर साबित नहीं हुई। इससे देश को विशेष लाभ नहीं हुआ। अतः स्वराज्यवादियों ने 1926 तक आते-आते अपनी नीति में परिवर्तन करके ‘उत्तरदायित्व पूर्ण सहयोग’ की भावना पर बल दिया।
स्वराज्य दल के पतन के कारण
1926 के आते-आते स्वराज्य पार्टी का पतन होने लगा इसके निम्नलिखित मुख्य कारण थे-
- 1925 में सीआर दास की मृत्यु से स्वराज्य दल को गहरा आघात पहुंचा। इससे बंगाल में यह दल शिथिल हो गया।
- कौंसिलों में प्रवेश कर अड़ंगा लगाने की नकारात्मक नीति ज्यादा कारगर साबित नहीं हुई इसलिए स्वराज्य वादियों ने सरकार से सहयोग की नीति पर काम करना शुरू कर दिया। इससे जनता में उनकी विश्वसनीयता कम हो गई।
- 1926 के निर्वाचन में स्वराज दल को कम सीटें मिलीं।
निष्कर्ष
अक्सर यह कहा जाता है कि स्वराज्य वादियों की विधानपरिषदों में प्रवेश कर अड़ंगा लगाने की नीति उतनी कारगर सिद्ध नहीं हुई जितनी उम्मीद की गई थी। वे नकारात्मक राजनीति कर रहे थे तथा उनके पास सकारात्मक कार्यक्रम का अभाव था। वे नौकरशाही की निरंकुशता को रोकने में भी सफल नहीं हुए।
लेकिन उपर्युक्त कमियों के बाद भी राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में स्वराज्य वादियों का महत्वपूर्ण योगदान है। असहयोग आंदोलन के रोक दिए जाने से उत्पन्न शिथिलता के समय इस दल ने जनता में उत्साह और साहस का संचार किया। इसने देश की राजनीति को उस समय संभाला जब कांग्रेस कुछ समय के लिए राजनीतिक दृष्टि से उदासीन हो गई थी।