स्वतंत्रता आंदोलन का द्वितीय चरण : 1905-1919

20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में कांग्रेस के अंदर गरम पंथ नामक एक नई प्रवृत्ति का विकास हुआ; जिसका नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और विपिन चन्द्र पाल कर रहे थे। इन्हें अक्सर लाल बाल पाल कहा जाता था। इन्होंने उदारवादी कहे जाने वाले लोगों की प्रार्थना करने की नीति का त्याग किया तथा राजनीतिक आंदोलन के नये, उग्र तथा गैर-सांवैधानिक तरीके अपनाए। बहिष्कार और स्वदेशी आदि के द्वारा जनता के विभिन्न वर्गों को इन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सफलतापूर्वक लामबंद किया; खासकर शहरी इलाकों में। शासन-प्रशासन में छोटी-मोटी सुधारों की मांग करने में इनकी कोई रुचि नहीं थी क्योंकि इनके अनुसार बिना स्वशासन के कोई भी सुधार व्यर्थ है। इसलिए गरमपंथियों ने स्वराज्य की मांग रखी।

स्वतंत्रता आंदोलन का द्वितीय चरण

लार्ड कर्जन

दिसंबर 1898 में कर्जन भारत का वायसराय बनकर आया। उसके अलोकप्रिय कार्यों से अंग्रेजी शासन का विरोध तेज हो गया।

बंगाल का विभाजन 1905

कर्जन का सबसे बदनाम कारनामा बंगाल का विभाजन था। प्रशासनिक सुविधा को इसका कारण बताया गया। लेकिन वास्तविक उद्देश्य हिंदु-मुस्लिम एकता को तोड़ना और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना था। परंतु इसके परिणाम सरकारी उम्मीदों के विपरीत रहे। इतना उग्र आंदोलन हुआ कि आखिरकार बंगाल के सांप्रदायिक आधार पर विभाजन को रद्द करना ही पड़ा।

बहिष्कार और स्वदेशी

बंग-भंग विरोधी आंदोलन के दौरान राजनीतिक प्रतिरोध के कुछ नये तरीके अपनाए गए जिनमें बहिष्कार और स्वदेशी मुख्य थे। ये दोनों परस्पर पूरक विचार हैं। बहिष्कार का अर्थ था विदेशी विचारों, पद्धतियों और मालों का विरोध करना और त्याग करना तथा स्वदेशी भावना का अर्थ था देशी विचारों और सामानों को अपनाना। तिलक और लाला लाजपत राय ने स्वदेशी, स्वराज्य और बहिष्कार के विचारों को सैद्धांतिक आधार भी प्रदान किया।

स्वदेशी आंदोलन बंगाल में विशेष रूप से सफल रहा। विदेशों से आयातित कपड़ों की होली जलाई गई। सरकारी पदवियों का परित्याग किया गया। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कालेजों को छोड़कर राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लिया। अनेक जगह छोटे पैमाने के राष्ट्रीय उद्यमों और तकनीकी संस्थानों की स्थापना की गई। 16 अक्टूबर 1905 को बंगाल विभाजन लागू हुआ था। इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाया गया। प्रतिबंधों के बावजूद वंदेमातरम् गीत को लोगों ने सड़कों पर पूरे जोश से गाया। जनता को आतंकित करने के लिए कई तरह के उपाय अपनाए गए। मगर दमन के सभी उपाय नाकाम रहे। अंततः विभाजन रद्द करना पड़ा।

मुस्लिम लीग की स्थापना

भारतीय मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने तथा उनमें सरकार के प्रति वफादारी लाने के उद्देश्य से एक संगठन बनाने के लिए अफसरशाही द्वारा उन्हें प्रोत्साहित किया गया। 30 दिसंबर 1906 को ढाका में मुस्लिम लीग का गठन हुआ। लीग 1911 तक सांप्रदायिकता की नीति पर चलता रहा। बाद में कुछ अरसों के लिए लीग की नीतियों में आंशिक परिवर्तन हुआ। 1912 ई तक अबुल कलाम आजाद, मौलाना मुहम्मद अली, शौकत अली, मुहम्मद अली जिन्ना, डॉ अंसारी जैसे नवयुवकों के लीग में शामिल होने से कांग्रेस और मुस्लिम लीग में निकटता आई।

कलकत्ता कांग्रेस 1906

कांग्रेस का 23वां अधिवेशन कलकत्ता में बुलाया गया। इस समय बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था। नरम दल और गरम दल के बीच मतभेद लगातार बढ़ते जा रहे थे। ऐसे में कांग्रेस की अध्यक्षता करने के लिए दादा भाई नौरोजी को जो सर्वमान्य नेता थे इंग्लैंड से बुलाया गया। स्वराज्य की प्राप्ति को कांग्रेस का उद्देश्य घोषित किया गया। यहां पर स्वराज्य को जानबूझकर अस्पष्ट अर्थों में लिया गया; स्वराज्य जैसा कि इंग्लैंड या उपनिवेशों में है।

स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रथम चरण यहाँ पढ़ें: स्वतंत्रता आन्दोलन : उदारवादी चरण  {1885-1905}

सूरत अधिवेशन और कांग्रेस में फूट 1907

कलकत्ता कांग्रेस के बाद भी नरम दल और गरम दल के मतभेद बढते गए। नरम दल वाले बहिष्कार और स्वदेशी की रणनीति को बंगाल तक सीमित रखना चाहते थे जबकि गरम दल के नेता इस सफल नीति को पूरे देश में अमल में लाना चाहते थे। नरम दल वालों ने गरम दल के नेताओं को कांग्रेस का नेतृत्व करने से रोकने की भरसक कोशिश की जबकि तिलक आदि गरम दल के नेता अपनी वैकल्पिक कार्यप्रणाली को कांग्रेस के मंच से ही कार्यान्वित करना चाहते थे। सूरत अधिवेशन के मंच से जब तिलक को बोलने नहीं दिया गया तो अधिवेशन स्थल में अफरातफरी मच गई। अधिवेशन को स्थगित कर देना पड़ा। बाद में दोनों दलों ने अलग-अलग सभाएं कीं। कांग्रेस का नेतृत्व अभी भी नरमपंथियों के हाथ में रहा। गरमपंथी 1916 में पुनर्विलय तक अलग रह कर सक्रिय रहे।

मार्ले-मिंटो सुधार

सरकार ने नरमपंथी नेताओं को संतुष्ट करने के लिए मार्ले-मिंटो सुधार की घोषणा की। मार्ले-मिंटो सुधारों के आधार पर भारत परिषद अधिनियम 1909 पारित किया गया। लेकिन ये सुधार हमेशा की तरह बहुत ही अपर्याप्त थे।

इसके द्वारा केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडलों की सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई तथा कुछ और निर्वाचित सदस्यों की व्यवस्था की गई। परंतु ये सदस्य जनता द्वारा चुने न जाकर जमींदारों और चेंबर ऑफ कॉमर्स द्वारा चुने जाते थे। सबसे ज्यादा खराब बात थी; मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था। यह व्यवस्था फूट डालो और राज करो की नीति के तहत एक सोची समझी चाल थी। इस प्रकार भारत के राजनीतिक जीवन में सांप्रदायिकता के बीज बोए गए। 1905 में तो केवल बंगाल का विभाजन किया गया था। मार्ले-मिंटो सुधार के जरिए पूरे देश को ही बांट दिया गया।

क्रांतिकारी आंदोलन

बीसवीं सदी के पहले दशक में देश के कई भागों में विशेष कर बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब में अनेक क्रांतिकारी संगठन बने। इनका उद्देश्य आतंक के जरिए सरकारी तंत्र का मनोबल तोड़ना था ताकि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए व्यापक विद्रोह हेतु सही माहौल तैयार हो सके। कुछ क्रांतिकारी संगठन यूरोप और अमेरिका में भी सक्रिय रहे।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान राष्ट्रीय आंदोलन

जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो ब्रिटेन की सरकार ने भारत के भी उसमें शामिल होने की घोषणा कर दी। युद्ध के लिए भारत के जन और धन दोनों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। अभी भी कांग्रेस का नेतृत्व उदारवादियों के हाथों में था। अंग्रेजी सरकार के युद्ध प्रयासों में कांग्रेस ने सहयोग किया। इस सहयोग के पीछे कर्त्तव्य बोध के साथ-साथ राजनीतिक सौदेबाजी की भावना भी काम कर रही थी, लेकिन गरमपंथी यही समझते थे कि जब तक लोकप्रिय दबाव नहीं डाला जाएगा तब तक सरकार कोई मूलभूत सुधार करने वाली नहीं है।

होमरूल आंदोलन 1916

प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत में राष्ट्रीय आंदोलन और भी मजबूत हुआ। 1914 में तिलक जेल से रिहा हो गए थे। श्रीमती एनी बेसेंट ने आयरलैंड के नमूने पर भारत में होमरूल के गठन का विचार 1915 में रखा। मार्च 1916 में तिलक ने पूणे में महाराष्ट्र होमरूल लीग की स्थापना की। दिसंबर 1916 में श्रीमती एनी बेसेंट ने मद्रास में अखिल भारतीय होमरूल लीग की स्थापना की। इन दोनों नेताओं ने तालमेल से कार्य किया। होमरूल आंदोलन का उद्देश्य सरकार पर दबाव बनाकर स्वशासन प्राप्त करना था। लेकिन कांग्रेस अभी भी इतने बड़े उद्देश्य के लिए तैयार नहीं था। इसलिए होमरूल आंदोलन के नेताओं ने कांग्रेस से स्वतंत्र रूप से कार्य किया। एनी बेसेंट ने अपने दैनिक पत्र न्यू इंडिया और साप्ताहिक कामन विल द्वारा अपने विचारों और आंदोलन का प्रचार किया। केसरी (मराठी) और मराठा (अंग्रेजी) तिलक के पत्र थे जो इसी दिशा में काम कर रहे थे।

कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन 1916

कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में दो समझौते हुए थे। एक तो गरम दल और नरमपंथियों के बीच एकता कायम हुई, और दूसरा समझौता कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुआ। दोनों संगठन समान मांगों और संयुक्त कार्यक्रम पर एकमत हुए। लेकिन कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग को सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व देने जैसी अनुचित मांगों को मान लिया गया। तुष्टिकरण की इस नीति से पृथकतावादी तत्व और अधिक असंतुष्ट होते गए। बाद में इसके हानिकारक परिणाम सामने आए।

रौलट एक्ट

1919 में ब्रिटिश सरकार ने सर सिडनी रौलट की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट को कानून का रूप दे दिया गया। जिसमें प्रशासन को किसी भी भारतीय को गिरफतार करने तथा उसे बंदी बनाए रखने का अधिकार दिया गया। विधायी परिषद के तीनों भारतीय सदस्यों, मदनमोहन मालवीय, मुहम्मद अली जिन्ना और मजहरुल हक ने इसके विरोध में इस्तीफा दे दिया। भारतीयों ने इस कानून का तीव्र विरोध किया।

जलियांवाला बाग हत्याकांड

रौलट एक्ट का पूरे देश में तीव्र विरोध हुआ लेकिन यह विरोध पंजाब में खासतौर पर मजबूत था। सरकार ने अनेक जगह पर लाठीचार्ज कराया तथा गोलियां चलवाई। पंजाब के दो प्रसिद्ध नेताओं डॉ सतपाल और डॉ सैफुद्दीन किचलू को 10 अप्रैल को गिरफतार कर किसी अज्ञात स्थान पर नजरबंद कर लिया गया। इन गिरफ्तारियों के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल को विरोध सभा का आयोजन किया गया। सभा शांतिपूर्वक चल रही थी और उकसावे वाली कोई बात नहीं हुई। फिर भी जनरल डायर ने आने-जाने के एकमात्र रास्ते को सैनिकों से घिरवा कर सभा भंग करने की चेतावनी दिए बिना तब तक गोलियां चलवाई जब तक सैनिकों के कारतूस खतम नहीं हो गये। लगभग 1600 राउंड चलाए गए। किसी के भागने का रास्ता नहीं था। लगभग एक हजार लोग मारे गए और इससे दुगने घायल हो कर वहीं पड़े रहे। इनमें स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े भी थे।

इस हत्याकांड के बाद पूरे पंजाब में सैनिक शासन लगाकर आतंक का राज कायम किया गया। मगर यह आतंक भी आंदोलन को नहीं दबा सका। जनरल डायर ने जिस ‘नैतिक भय‘ के पैदा होने की आशा की थी, वह पैदा न हो सका। इसके फौरन बाद गांधी जी की अगुवाई में खिलाफत और असहयोग के प्रश्र पर जन आंदोलन शुरू हो गया। तथा इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन का अगले और जुझारू चरण में प्रवेश हुआ।

दोस्तों के साथ शेयर करें

Leave a Comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *