मूल अधिकारों की संशोधनीयता
संविधान के भाग तीन में मूल अधिकार दिए गए हैं। इन अधिकारों को व्यक्तित्व के विकास के लिए मूलभूत माना गया है। इनके विशेष महत्व को देखते हुए इन्हें अनावश्यक संशोधनों से बचाने का उपबंध भी किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 13(2) के अनुसार राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो भाग तीन में प्रदत्त किसी मूल अधिकार को छीनती या कम करती है और ऐसी कोई भी विधि मूल अधिकारों के उल्लंघन की सीमा तक विधिशून्य होगी। इसीलिए मूल अधिकारों की संशोधनीयता के बारे में ऐतिहासिक विवाद भी हुआ।
गोलकनाथ के वाद से पहले की स्थिति
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में निर्णय (1967) से पहले उच्चतम न्यायालय का यह अभिमत था कि हमारे संविधान में ऐसा कोई भाग नहीं है जिसका संशोधन नहीं किया जा सके। अनुच्छेद 368 में दी गई प्रक्रिाओं का पालन करते हुए संसद संविधान के किसी भी उपबंध का संशोधन कर सकती है। इसी रीति से भाग तीन में दिए गए मूल अधिकारों का भी संशोधन किया जा सकता है। न्यायलय ने यह निश्चित किया था कि संविधान संशोधन अधिनियम सामान्य विधि से अलग प्रकृति के होते हैं इसलिए संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के खंड 3 में यथापरिभाषित विधि नहीं है। अनुच्छेद 13(2) द्वारा मूल अधिकारों के संशोधन के संबंध में लगाए गए निर्बंधन केवल सामान्य विधियों पर लागू होते हैं संविधान संशोधन की प्रक्रिया पर नहीं।
गोलकनाथ के वाद में निर्णय, 1967
परंतु गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के वाद में ग्यारह न्यायाधीशों की विशेष पीठ ने छ: न्यायाधीशों के बहुमत से पहले के विनिश्चय को उलट दिया और यह मत दिया कि मूल अधिकारों की प्रकृति ही ऐसी है कि अनुच्छेद 368 में बताए गए तरीके से उनको बदला नहीं जा सकता। यदि मूल अधिकारों में परिवर्तन जैसे क्रांतिकारी बदलाव करना है तो नयी संविधान सभा बुलानी पड़ेगी। गोलकनाथ के वाद में संविधान संशोधन अधिनियम को अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत आने वाली विधि माना गया।
24वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1971
गोलकनाथ के मामले में निर्णय के बाद संसद ने 24वां संविधान संशोधन अधिनियम 1971 के द्वारा अनुच्छेद 368 में दो संशोधन किया। पहला यह कि संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के अर्थ में विधि नहीं होगा और दूसरा यह कि संविधान संशोधन अधिनियम की सांवैधानिकता को इस आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जा सकता कि वह किसी मूल अधिकार को छीनता या प्रभावित करता है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद, 1973
24वें संविधान संशोधन अधिनियम को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में चुनौती दी गई। इसे 13 न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ ने सुना जिसने 24वें संविधान संशोधन अधिनियम की विधिमान्यता को बनाए रखते हुए यह निर्णय दिया कि संसद द्वारा पारित संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के अर्थ में विधि नहीं है। इस प्रकार केशवानंद भारती के वाद में न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के निर्णय को उलट दिया। इस वाद में न्यायालय ने यह भी विनिश्चय दिया कि संसद अनुच्छेद 368 में विहित प्रक्रिया के पालन में मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी उपबंध में संशोधन कर सकती है।
मूल अधिकारों के संशोधन के संबंध में वर्तमान स्थिति यह है कि संसद अनुच्छेद 368 अधीन पारित संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी उपबंध का संशोधन कर सकती है।
गोलकनाथ मामले के समय से ही एक अन्य प्रश्न भी उठाया जाता रहा है । क्या मूल अधिकारों के अलावा भारत के संविधान में ऐसा कोई अन्य उपबंध भी है जिसमें संशोधन नहीं किया जा सकता। इसका उत्तर हां में है। न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों में यह निश्चय दिया है कि हमारे संविधान की कुछ ऐसी मूलभूत विशेषताएं हैं जिनमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। आधारिक संरचना या मूलभूत ढांचे का सिद्धांत उच्चतम न्यायालय ने पहली बार गोलकनाथ के वाद में दिया। हालांकि कि केशवानंद के वाद में न्यायालय ने गोलकनाथ के कुछ निर्णयों को उलट दिया था लेकिन आधारभूत संरचना के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया। इसका यही अर्थ है कि हमारे संविधान में कुछ ऐसी विशेषताएं भी हैं जो उसके मूलभूत ढांचे का निर्माण करती हैं। इनमें परिवर्तन संविधान में परिवर्तन माना जाएगा। संविधान के किसी भी उपबंध में संशोधन तो किया जा सकता है लेकिन संशोधन द्वारा उसके बुनियादी ढांचे या आधारभूत संरचना को बदला नहीं जा सकता।
भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का निर्माण करने वाली विशेषताओं की सूची इस प्रकार है :-
- संविधान की सर्वोच्चता,
- विधि का शासन,
- शक्ति पृथककरण का सिद्धांत,
- प्रस्तावना में घोषित उद्देश्य,
- न्यायिक पुनरावलोकन,
- परिसंघ प्रणाली,
- पंथनिरपेक्षता,
- प्रभुत्वसंपन्न, लोकतांत्रिक, गणराज्य;
- संसदीय शासन प्रणाली,
- स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का सिद्धांत,
- व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा,
- राष्ट्र की एकता और अखंडता,
- मूल अधिकारों का सार,
- भाग चार, कल्याणकारी राज्य की अवधारणा,
- सामाजिक न्याय,
- मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन,
- न्याय का सुलभ होना,
- समान न्याय का सिद्धांत,
- स्वयं अनुच्छेद 368; आदि।
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