भारत के अपवाह तंत्र या नदी तंत्र
प्रत्येक नदी का एक अपना विशिष्ट जलग्रहण क्षेत्र होता है, जहां से वह जल बहा कर लाती है। बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को अपवाह क्षेत्र या द्रोणी या नदी बेसिन कहते हैं जबकि छोटी नदियों और नालों का जलग्रहण क्षेत्र जल-संभर कहलाता है।
भारत के अपवाह तंत्रों को अनेक आधारों पर वर्गीकृत किया जाता है।
समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर
समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर भारत में दो तरह की नदियां हैं :
- अरब सागर में मिलने वाली नदियों का तंत्र
- दूसरा बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियों का समूह।
इन दोनों नदी तंत्र जल विभाजक के जरिए अलग-अलग क्षेत्रों में प्रवाहित होती हैं। अम्बाला, दिल्ली, कटक, अरावली एवं सहयाद्रि द्वारा ये अलग किए गए हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, कावेरी आदि बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियां हैं। इनसे संपूर्ण भारतीय अपवाह का 77% जल प्रवाहित होता है। जबकि 23% क्षेत्र का जल सिंधु, नर्मदा, ताप्ती, माही, पेरियार आदि नदियों के द्वारा अरब सागर में गिरता है।
उद्गम के आधार पर
उद्गम के आधार पर भी भारत की नदियों का वर्गीकरण किया गया है।
- हिमालयी अपवाह तंत्र, और
- प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र
यह सर्वाधिक प्रचलित वर्गीकरण है।
हिमालयी अपवाह तंत्र
हिमालयी अपवाह की नदियों का उद्गम हिमनदों से या ग्लेसियरों से हुआ है जिनकी बर्फ के पिघलने से ये नदियां बारहमासी हैं। हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली नदियां अनेक प्रकार की स्थलाकृतियां बनाती हैं। ये आकृतियां इन नदियों की अपरदनात्मक और निक्षेपणात्मक शक्तियों से बनी हैं।
ये नदियां महागर्तों या गार्ज से गुजरती हैं। इन महाखड्डों का निर्माण हिमालय के उत्थान के साथ-साथ अपरदन की क्रिया के द्वारा हुआ है। महाखड्डों के अलावा ये नदियां अपने मार्ग में V आकार की घाटियां, क्षिप्रिकाएं और जलप्रपात बनाती हैं।
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जब ये मैदान में प्रवेश करती हैं, तब समतल घाटियां, गोखुर झीलें, जलोढ़ मैदान, गुंफित वाहिकाएं और अपने मुहानों पर डेल्टाओं आदि निपेक्षणात्मक स्थलाकृतियों का निर्माण करती हैं।
हिमालय क्षेत्र में इन नदियों का रास्ता तीखे मोड़ वाला और टेढ़ा-मेढ़ा है परंतु मैदान में ये नदियां सर्पिल मार्ग पर मंथर गति से बहती हैं। मैदानी इलाकों में ये नदियां कई बार अपना रास्ता भी बदल लेती हैं। पहाड़ों से लाए भारी अवसाद के कारण मैदानी क्षेत्रों में इन नदियों का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। इसलिए कई बार इनका रास्ता बदल जाता है। इससे कई बार भारी तबाही मच जाती है। बिहार का शोक कहलाने वाली कोसी नदी अपना रास्ता बदलने के लिए कुख्यात है।
हिमालय अपवाह में निम्नलिखित तीन प्रमुख नदी प्रणालियां हैं :-
2. गंगा नदी तंत्र,
3. ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र।
प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र
प्रायद्वीप अपवाह तंत्र हिमालय अपवाह से पुराना है। क्योंकि प्रायद्वीपीय नदियों की घाटियां चौड़ी और उथली हैं।
प्रायद्वीपीय नदियां सुनिश्चित मार्ग पर चलती हैं। हिमालय क्षेत्र की नदियों की तरह सर्पाकार नहीं है। तथा बारहमासी भी नहीं हैं। नर्मदा और ताप्ती इसके अपवाद हैं।
नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर अधिकतर प्रायद्वीपीय नदियां पश्चिम से पूर्व की ओर बहकर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। पश्चिमी तट के समीप स्थित पश्चिमी घाट एक जल विभाजक है जो बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियों और अरब सागर में मिलने वाली छोटी नदियों के बीच जलविभाजक का काम करता है।
प्रायद्वीप के उत्तरी भाग से निकलने वाली चम्बल, सिंध, बेतवा, केन व सोन नदियां गंगा नदी तंत्र के अंग हैं।
प्रायद्वीप की अन्य प्रमुख नदियां महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी हैं।
हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों में अंतर
1. हिमालयी नदियों का उद्गम बहुत ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियरों से हुआ है जबकि प्रायद्वीपीय नदियां पठारों, उच्च भूमि या पहाड़ियों से निकली हैं।
2. हिमनद से निकलने के कारण हिमालयी नदियां सदानीरा या बारहमासी हैं। प्रायद्वीपीय नदियां पूरी तरह मानसून पर निर्भर होने से मौसमी हैं।
3. हिमालय क्षेत्र की कुछ नदियों के मार्ग में मैदानी इलाकों में परिवर्तन होता रहता है जबकि प्रायद्वीपीय नदियां निश्चित मार्ग में बहती हैं।
4. हिमालय से निकलने वाली नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़ा होता है, प्रायद्वीप की नदियां छोटी द्रोणियों का जल लाती हैं।
5. हिमालयी नदियां युवा हैं, बाद की बनी हैं और अभी भी क्रियाशील हैं। प्रायद्वीपीय नदियां प्रौढ़ होकर अपना आधार तल पा चुकी हैं।
क्रमश: …. (शीघ्र ही अद्यतन किया जायेगा)
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