न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर की अवधारणा
न्याय-वैशेषिक दर्शन (न्याय और वैशेषिक) दोनों जुड़वां दर्शन हैं। न्याय दर्शन ज्ञानमीमांसा पर अधिक जोर देता है जबकि वैशेषिक दर्शन अपने परमाणुवादी तत्वमीमांसा के लिए प्रसिद्ध है। न्याय दर्शन के प्रणेता अक्षपाद गौतम थे। उन्होंने अपने न्यायसूत्र में ईश्वर पर संक्षिप्त रूप से ही विचार किया है।
वैशेषिक दर्शन के प्रारंभ कर्ता महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिक सूत्र में ईश्वर का उल्लेख नहीं किया है हालांकि वे ईश्वरवादी थे। शंकराचार्य ने भी अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में कणाद को ईश्वरवादी माना है।
लेकिन प्रशस्तपाद आदि उनके व्याख्याकारों ने ईश्वर की पर्याप्त चर्चा की है। बाद में न्याय और वैशेषिक आपस में इतने घुल-मिल गए कि ईश्वर के स्वरूप तथा गुण आदि के विषय में उन दोनों में कोई मतभेद नहीं रहा।
न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, धर्म व्यवस्थापक, कर्मफल दाता तथा सृष्टि का रचयिता है। वह विश्वकर्मा है। परमाणु जो सृष्टि के पूर्व निष्क्रिय रहते हैं। ईश्वर उन्हें सक्रिय कर सृष्टि की उत्पत्ति में प्रवृत्त कराता है। अतः वह संसार का निमित्त कारण है। उपादान कारण तो परमाणु हैं। ईश्वर संसार के सभी विषयों का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करता है। वह सर्वज्ञ एवं पूर्ण है।
ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण
न्याय-वैशेषिक दर्शन आस्तिक दर्शन हैं। उन्हें वेदवाक्यों में पूरी आस्था है। अतः नैयायिक आगम प्रमाण द्वारा अर्थात् वेद और उपनिषदों के वाक्यों के द्वारा ईश्वर की सत्ता को सिद्ध मानते हैं। इसके अलावा वे अनुमान की सहायता से तार्किक प्रमाण भी देते हैं।
उदयन ने इस संबंध में निम्नलिखित प्रमाण दिए हैं:-
कार्यायोजन धृत्यादे: पदार्थ प्रत्ययत: श्रुते:।
वाक्यात् सांख्याविशेषाच्य साध्यो विश्वविदव्यय:।।– न्यायकुसुमांजलि, 5/1
कार्यात्
जगत एक कार्य है। इसका निमित्त कारण ईश्वर है जो परमाणु से विश्व की रचना करता है।
आयोजनात्
अचेतन परमाणु स्वत: क्रियाशील नहीं हो सकते। परमाणुओं की सक्रियता और परस्पर संयोग का कारण सर्वशक्तिमान ईश्वर ही है।
धृत्यादै:
जगत का कोई धारण करने वाला और संहारक होना चाहिए। ईश्वर के संकल्प से ही संसार की उत्पत्ति और संहार होता है।
पदार्थ
लोगों में कला कौशल और निपुणताएं देखी जाती हैं। ये कौशल शिक्षण द्वारा अर्जित किए जाते हैं। जो प्रथम शिक्षक है, गुरुणांगुरु: है वह ईश्वर है।
वाक्यात्
अपौरुषेय वेदवाक्यों का रचयिता सर्वज्ञानी ईश्वर ही है।
संख्या विशेष
परमाणु भिन्न भिन्न संख्या में संयुक्त हो कर सृष्टि की विविधताओं का सृजन करते हैं। उस समय परमाणुओं की मात्रात्मक और संख्यात्मक उपयुक्तता का ज्ञान केवल ईश्वर को रहता है।
अदृष्ट
पुण्य और पाप के पुंज को अदृष्ट कहते हैं। जीवात्मा अपने अदृष्ट के अनुसार अच्छे और बुरे कर्मों का फल भोगता है। चूंकि अदृश्य अचेतन है अतः वह अपने आप कुछ नहीं कर सकता। जीवों को उनके अदृष्टानुसार कर्मफल देने वाला ईश्वर ही है।
समीक्षा
ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय दर्शन द्वारा दी गई उपरोक्त युक्तियों की आलोचना की गई है। व्यवहारिक जगत के रूपकों के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। किसी विशेष कार्य का कर्ता जरूर होता है लेकिन जगत को कार्य मानकर ईश्वर को उसका निमित्त कारण नहीं माना जा सकता।
वेदों को अपौरुषेय मान लेना फिर उसे ईश्वर के द्वारा रचित मानना अन्योन्याश्रय दोष को दर्शाता है न कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करता है। इसी प्रकार ईश्वर और विश्व की परमाण्विक संरचना को एक साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता। परमाणु को ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना से पहले मानने का अर्थ है ईश्वर को सीमित करना।
इसी तरह न्याय दर्शन यह भी मानता कि ईश्वर अदृष्ट के अनुसार कर्म फल प्रदान करता है और अदृष्ट सृष्टि के पहले से ही है। अतः न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार बहुत से ऐसे पदार्थ है जो ईश्वर की तरह अनादि है। ऐसी चीजें सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर की अवधारणा के विरुद्ध हैं। आचार्य शंकर ने भी न्याय दर्शन के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए दी जाने वाली युक्तियों का खंडन किया है।
टिप्पणी:KYA aap mante hai ki eshwar hai
हां ईश्वर है तत्व उस परमात्मा की अंतरआतमा है, परमाणु रूप उनका सरीर ।