तार्किक भाववाद या तार्किक प्रत्यक्षवाद : Logical Positivism

तार्किक भाववाद या तार्किक प्रत्यक्षवाद (Logical Positivism)

तार्किक भाववाद आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का एक महत्वपूर्ण संप्रदाय है। यह वियना सर्किल से शुरू हुआ और 1950 के आते-आते इसका दौर ख़तम हो गया। इस संप्रदाय को प्रत्यक्षवाद इसलिए कहा जाता है कि प्रत्यक्ष अनुभव में आने वाले फेनोमेना के अतिरिक्त किसी पारमार्थिक सत्ता का अस्तित्व नहीं है और यह भी कि प्रत्यक्ष अनुभव ही ज्ञान का एकमात्र साधन है। ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है और अनुभव से ही प्रमाणित भी होता है। लेकिन तार्किक प्रत्यक्षवादियों का अनुभववाद लाक और बर्कले आदि के अनुभववाद से भिन्न है।

लाक और बर्कले का अनुभववाद मनोवैज्ञानिक है जबकि इसके विपरीत तार्किक प्रत्यक्षवादियों के तार्किक आधार पर अपने विचारों को स्थापित किया। एक बात और। इनकी तार्किकता अरस्तू की परंपरा का नहीं होकर रसेल के तार्किक अणुवाद से प्रेरित है। तार्किक अणुवाद की तरह तार्किक भाववादी भी भाषा का विश्लेषण करते हैं।

इनकी मान्यता है कि सत्य की खोज का काम विज्ञान का है। दर्शन का काम सत्य या सत्ता की खोज करना नहीं है। इसका कार्य विज्ञान की भाषा को बोधगम्य बनाकर प्रस्तुत करना है। इस तरह तार्किक प्रत्यक्षवादी दर्शन शास्त्र को उसके परंपरागत कार्य से मुक्त करता है। तार्किक प्रत्यक्षवाद के अनुसार दर्शन शास्त्र के दो तरह के कार्य हैं; निषेधात्मक और भावनात्मक।

दर्शनशास्र का निषेधात्मक कार्य तत्त्वमीमांसा का निरसन या खंडन करना है। विज्ञान की भाषा के अर्थों का स्पष्टीकरण करना, उसकी अनेकार्थकता और संशय की स्थिति को हटाना दर्शनशास्र का सकारात्मक कार्य है।

तत्त्वमीमांसा का निरसन (Elimination of Metaphysics )

दर्शन में तत्त्वमीमांसा का खंडन कोई नयी बात नहीं है। पायरो आदि प्राचीन संशय वादियों से लेकर ह्यूम तक और उसके बाद भी अनेक दार्शनिकों ने तत्त्वमीमांसा का खंडन किया था। कांट ने भी सत्ता को ज्ञानातीत माना था। भारतीय दर्शन में बुद्ध ने भी तत्वमीमांसीय प्रश्नों को अनावश्यक माना था जिन पर विचार करना वांछनीय नहीं है। लेकिन पहले के दार्शनिकों द्वारा तत्वमीमांसा का खंडन ज्ञानमीमांसीय आधार पर किया गया था।

हमारे ज्ञान के साधनों से हमें किसी परमसत्ता की उपलब्धि नहीं होती। हम किसी ईश्वर को नहीं जानते इसलिए ईश्वर नहीं है। इस प्रकार पहले के दार्शनिकों ने अज्ञेयता के कारण तत्त्वमीमांसा का खंडन किया है। किंतु तार्किक प्रत्यक्षवादियों ने पहली बार भाषा के आधार पर तत्वमीमांसा का विश्लेषण किया और यह दिखाने का प्रयास किया कि तत्वमीमांसा से संबंधित कथन निरर्थक होते हैं।

तार्किक भाववादियों ने तत्त्वमीमांसा के निरसन के लिए दो तरह से प्रयास किए हैं:-
1. सत्यापन सिद्धांत
2. तत्त्वमीमांसा के कथनों का भाषायी विश्लेषण।

सत्यापन सिद्धांत (Theory of Verification) या अर्थ का सत्यापन सिद्धांत

सत्यापन का सिद्धांत तत्वमीमांसा के निरसन के लिए तार्किक प्रत्यक्षवादियों का मुख्य औजार है। इस सिद्धांत के द्वारा वे यह दावा करते हैं कि विज्ञान के कथन सार्थक होते हैं जबकि तत्वमीमांसा के कथन निरर्थक होते हैं चाहे वे अर्थपूर्ण होने का कितना ही भ्रम क्यों न पैदा करें?

तार्किक प्रत्यक्षवादियों ने सार्थकता को संज्ञानात्मक अर्थ में लिया है। इनके अनुसार वही कथन सार्थक माना जा सकता है जो किसी प्रकार की ज्ञानात्मक (Cognitive) सूचना दे, जैसे ‘फूल लाल है।’ कुछ कथन ऐसे होते हैं जो जो संवेगात्मक (Emotive) दृष्टि से प्रभावपूर्ण होते हैं किन्तु संज्ञानात्मक अर्थ में सार्थक नहीं होते। जैसे ‘ईश्वर दयालु है’। यह कथन संवेगात्मक अर्थ में संतोष प्रदान कर सकता है फिर भी यह कथन सार्थक नहीं है क्योंकि इससे हमारे ज्ञान में वृद्धि नहीं होती, यह कथन हमें कोई ज्ञानात्मक सूचना नहीं देता।

तार्किक प्रत्यक्षवादियों ने ‘आरंभिक विटगेंस्टाइन’ से अर्थात् विट्गेंस्टाइन के शुरुआती विचारों से प्रभावित होते हुए सत्यापन सिद्धांत की कसौटियों को निर्धारित किया। इनके अनुसार वही कथन सार्थक हो सकते हैं जो या तो विश्लेषणात्मक है या यदि वह संश्लेषणात्मक है तो अनुभव द्वारा परीक्षणीय (Empirically Verifiable) है। यहां विश्लेषणात्मक कथन से तात्पर्य उन कथनों से है जिनकी सत्यता असत्यता का निश्चय उसमें प्रयुक्त शब्दों के तार्किक आकार से ही हो जाता है अर्थात जिनका अनुभव से कोई संबंध नहीं है।

ये कथन पुनरुक्ति मात्र होते हैं और हमें कोई नयी ज्ञानात्मक सूचना नहीं देते। अतः वही कथन सार्थक माना जा सकता है जिसके सत्य या असत्य होने का निर्णय या शब्दों के तार्किक स्वरूप से हो जाए या आनुभविक परीक्षण से हो जाए। लेकिन तत्वमीमांसीय कथनों का सत्यापन इन दोनों ही कोटियों से नहीं हो सकता, अतः वे निरर्थक हैं। उदाहरण के लिए ‘ईश्वर सर्वव्यापक है’ यह कथन विश्लेषणात्मक नहीं है क्योंकि यह सत्ता संबंधी कथन है न कि आकारिक। यह संश्लेषणात्मक वाक्य है, पर संश्लेषणात्मक होते हुए भी अनुभव से परीक्षणीय नहीं है। अतः यह छद्म कथन है। शब्दजाल मात्र है।

सत्यापन सिद्धांत का विकास

सत्यापन का सिद्धांत एक गतिशील सिद्धांत है। समय समय पर इसमें संशोधन-परिवर्तन होता रहा है। इस क्रम में सत्यापन के विभिन्न रूप सामने आए।
1. व्यवहारिक सत्यापन और सैद्धांतिक सत्यापन
2. सबल सत्यापन और निर्बल सत्यापन
3. प्रत्यक्ष सत्यापन और परोक्ष सत्यापन

व्यवहारिक सत्यापन तथा सैद्धांतिक सत्यापन

तार्किक प्रत्यक्षवादियों ने सत्यापन सिद्धांत के आधार पर विज्ञान के कथनों को सार्थक और तत्वमीमांसा के कथनों को निरर्थक साबित करने का प्रयास किया था लेकिन विज्ञान में भी ऐसे अनेक कथन होते हैं जिनका आज की स्थिति में आनुभविक परीक्षण संभव नहीं है। जैसे:-
1. चंद्रमा में पर्वतों की श्रृंखला है।
2. परमाणु हथियारों से संपूर्ण विश्व नष्ट हो जाएगा।

आदि ऐसे हैं कथन जो 1936 की स्थिति में सत्यापित नहीं किए जा सकते थे। अतः मोरिट्ज श्लिक और ए जे एयर ने व्यवहारिक सत्यापन और सैद्धांतिक सत्यापन की अवधारणा प्रस्तुत किया। सैद्धांतिक सत्यापन वह है जिनका भविष्य में व्यवहारिक सत्यापन हो सकने की संभावना है। चंद्रमा पर पर्वत श्रृंखला है इस कथन को 1936 में व्यवहारिक सत्यापन संभव नहीं था लेकिन अब ऐसा हो चुका है। परंतु तत्वमीमांसीय कथन जैसे, ‘निरपेक्ष तत्व कालातीत है’ इसका न तो व्यावहारिक सत्यापन संभव है और न ही सैद्धांतिक। अतः यह कथन निरर्थक है।

सबल और निर्बल सत्यापन

विज्ञान के विशिष्ट कथनों का ठोस आनुभविक सत्यापन हो सकता है लेकिन सामान्य नियमों का जैसे कि परमाणु में इलेक्ट्रान होते हैं इसका निश्चयात्मक सत्यापन नहीं हो सकता तो क्या विज्ञान के सामान्य नियम निरर्थक है। श्लिक तो यही कहते हैं लेकिन वह यह भी मानते हैं कि विज्ञान के सामान्य नियमों से संबंधित कथन निरर्थक होते हुए भी महत्वपूर्ण होते हैं। परंतु तत्वमीमांसीय कथन निरर्थक और महत्वहीन होते हैं। परंतु ए जे एयर सबल और निर्बल सत्यापन में भेद करते हुए कहते हैं कि विज्ञान के सामान्य कथनों का निर्बल सत्यापन ही हो सकता है।

प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सत्यापन

प्रत्यक्ष सत्यापन वह है जब तथ्य का साक्षात अनुभव हो लेकिन कुछ तथ्य ऐसे भी होते हैं जिनका साक्षात परीक्षण संभव नहीं है। अतः ऐसे में परोक्ष सत्यापन का सहारा लिया जा सकता है। जैसे; कार्य के आधार पर कारण का सत्यापन किया जा सकता है।

आलोचना

1. अर्थ का सत्यापन सिद्धांत स्वयं अपनी कसौटी पर ख़रा नहीं उतरता है। यह कथन न तो विश्लेषणात्मक है और न ही ऐसा संश्लेषणात्मक कथन है जिसका आनुभविक सत्यापन हो सके।

2. तार्किक भाववादी विटगेंस्टीन के आरंभिक विचारों से प्रभावित थे लेकिन स्वयं विटगेंस्टीन ने बाद में अपने विचारों में संशोधन करते हुए माना कि भाषा का कार्य केवल संज्ञानात्मक नहीं है बल्कि संवेगात्मक और नैतिक कथनों को प्रस्तुत करना भी है। बाद में उसने अपने इस विचार को भी बदल दिया कि तत्त्वमीमांसा संबंधी प्रश्न निरर्थक होते हैं।

3. तार्किक भाववादियों ने वाक्य और कथन को आपस में गड्डमड्ड कर दिया है। वाक्य एक व्याकरणिक संरचना है जो सार्थक या निरर्थक होती है। परंतु कथन वास्तविक जीवन और जगत के तथ्यों के बारे में किसी वाक्य के निहितार्थ हैं। कथन या तो सत्य होता है या असत्य। तार्किक भाववादियों ने सत्यता असत्यता को सार्थकता की कसौटी बना दिया।

4. तत्वमीमांसा का खंडन करते करते तार्किक भाववादी विज्ञान का भी खंडन कर बैठे। हालांकि बाद में वे निर्बल सत्यापन, परोक्ष सत्यापन आदि के आधार पर विज्ञान की रक्षा करने की कोशिश करते रहे लेकिन ये सब कमजोर युक्तियां साबित हुए।

5. परोक्ष सत्यापन की अवधारणा भी सार्थकता के सिद्धांत को नहीं बचा पायी क्योंकि ए. चर्च ने प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र की युक्तियों से उसका खंडन कर दिया।

इस तरह सत्यापन का सिद्धांत एक ऐसी अवधारणा है जिसके बिना तार्किक भाववादियो की दार्शनिक प्रणाली में न तो घूसा जा सकता है और न ही उसके साथ वहां रहा जा सकता है।

तत्त्वमीमांसा के कथनों का भाषायी विश्लेषण

ए जे एयर का विश्लेषण

ए जे एयर ने तत्त्वमीमांसीय कथनों का भाषायी विश्लेषण करके यह स्पष्ट किया है कि ये कथन निरर्थक होते हैं। जैसे ईश्वर दयालु है। यह कथन विश्लेषणात्मक नहीं है क्योंकि यह पुनरुक्ति मात्र नहीं है। यह संश्लेषणात्मक कथन है। लेकिन इसका आनुभविक सत्यापन नहीं हो सकता। न तो प्रत्यक्ष तरीके से और न ही परोक्ष रीति से इसका सत्यापन संभव है इसलिए उक्त कथन निरर्थक है।

कुछ तत्वमीमांसक यह कह सकते हैं कि ईश्वर को रहस्यात्मक अनुभव के द्वारा अपरोक्षानुभूति के माध्यम से साक्षात् रूप से जान सकते हैं। लेकिन एयर का कहना है कि रहस्यात्मक अनुभव सामान्य अनुभव से भिन्न है जो प्रमाणीकरण चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध नहीं होता अतः उसे सार्थकता के मानदंड के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

ए जे एयर के अनुसार तत्वमीमांसा की समस्याएं वास्तविक न होकर छद्म हैं। ये समस्याएं भाषा की प्रकृति को नहीं समझ पाने के कारण उत्पन्न होती हैं। वाक्य में उद्देश्य और विधेयक होता है। उद्देश्य वह है जिसके बारे मेें कोई कथन किया गया है। तत्त्वमीमांसक यह मान कर चलते हैं कि प्रत्येक उद्देश्य के संगत उसके अनुरूप कोई न कोई वस्तु अवश्य होती है। जिन शब्दों के अनुरूप वस्तु या इंद्रिय प्रदत्त इस जगत में नहीं मिलते, उन्हें किसी दूसरी दुनिया में पारलौकिक जगत में सत्य मान लिया जाता है। ईश्वर,अनश्वर आत्मा आदि ऐसी ही धारणाएं हैं।

एयर के अनुसार तत्वमीमांसा के कथन शब्दजाल मात्र हैं। वास्तविकता से रहित हैं जो कवियों की कल्पनाओं से भी निम्न स्तर के होते हैं क्योंकि वे यह भी नहीं जानते कि वे किस भ्रम में हैं।

कार्नेप का भाषायी विश्लेषण

कार्नेप के अनुसार सभी तत्त्वमीमांसीय कथन निरर्थक हैं क्योंकि वे न तो पुनर्कथन हैं,न तो व्याघातिक कथन हैं और न ही ऐसे संश्लेषणात्मक कथन हैं जिनके विश्लेषण से कोई स्वानुभवमूलक कथन प्राप्त किया जा सकता है।

कार्नैप के अनुसार तत्त्वमीमांसीय कथनों में या तो निरर्थक शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है या फिर सार्थक शब्दों को गलत विन्यास में प्रयुक्त किया जाता है। इन कारणों से तत्त्वमीमांसा संबंधी कथन निरर्थक होते हैं।

जैसे हाइडेगर का ‘शून्यता’ (Nothingness) शब्द निरर्थक है क्योंकि इसके अनुरूप कोई धारणा या छवि नहीं बनती।
इसी तरह सार्थक शब्दों को ग़लत विन्यास में प्रयोग करने से भी कथन निरर्थक हो जाते हैं। जैसे कि देकार्त की यह प्रसिद्ध उक्ति मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं भी निरर्थक है क्योंकि इसमें भी शब्द की व्याकरणिक स्थिति को गड्डमड्ड किया गया है।

इस प्रकार तार्किक भाववादियों ने तत्त्वमीमांसा के कथनों का भाषा के आधार पर विश्लेषण करके यह सिद्ध करने करने का प्रयत्न किया है कि वे वास्तविक कथन न हो कर छ्द्म कथन हैं क्योंकि इन कथनों में शब्दों की तार्किक शक्तियों की अवहेलना करते हुए उनका गलत प्रयोग किया गया है।

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