जैन दर्शन
जीव के प्रकार
जैन दर्शन चेतन द्रव्य को जीव या आत्मा कहता है। जीव चेतना स्वरूप है अर्थात् जीव में चेतना हमेशा पाई जाती है। हालांकि कि अलग-अलग जीवों में चेतना की मात्रा पृथक-पृथक होती है। कैवल्य ज्ञान प्राप्त जीव पूर्ण चेतन होते हैं जबकि पौधों में कम से कम चेतना पाई जाती है।
जीव दो तरह के होते हैं :- मुक्त और बद्ध।
जो जीव मुक्त नहीं हुए हैं, अभी तक बंधन में हैं वे दो प्रकार के होते हैं
- गतिमान (त्रस) और
- स्थावर।
स्थावर जीव एक इंद्रिय वाले होते हैं, उनमें केवल स्पर्शेंद्रिय होती है। त्रस जीवों में उनके विकास की अवस्था के अनुसार दो से पांच तक इंद्रियां होती हैं। सीप, घोंघा आदि में त्वचा और जिह्वा, स्पर्शेंद्रिय और स्वादेंद्रिय दो ही इंद्रियां होती हैं। पशुओं और मानव आदि उच्च श्रेणी के जीवों में त्वचा, जिह्वा, नासिका, चक्षु और कर्ण पांच इंद्रियां होती हैं।
जीव के अस्तित्व के प्रमाण
जैन दर्शन के अनुसार जीवात्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से प्रमाणित होता है। ‘मैं सुखी हूं’ इसका मुझे प्रत्यक्ष ज्ञान होता है अर्थात् जीव की आंतरिक अनुभूतियों का ज्ञान। आत्मा का परोक्ष ज्ञान भी होता है। जो शरीर का परिचालक है, प्रयोजनकर्ता है, ज्ञाता है वही आत्मा है। आत्मा के बिना शरीर निर्जीव होता है। आत्मा के बिना शरीर के बारे में सोचना असंभव है।
आत्मा की शुद्ध अवस्था अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत सामर्थ्य है पर पुद्गल से जड़ तत्व से संबंधित होकर जीव कहलाती है। जीव संसारी है। आत्मा स्वयंप्रकाश्य है और अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करती है। आत्मा नित्य और चेतन है वह जगह नहीं घेरती।
अविद्या के कारण जीव बंधनग्रस्त होता है। जीव का कोई आकार नहीं होता। वह पूरे शरीर में व्याप्त रहता है जैसे प्रकाश स्थान के अनुसार आकार ग्रहण करता है उसी प्रकार जीव का विस्तार भी शरीर के अनुसार होता है। इसी अर्थ में जीव ‘अस्तिकाय’ कहा गया है। पर वह शरीर का हिस्सा नहीं है।
एक जड़ पदार्थ के साथ-साथ उसी जगह पर कोई दूसरा जड़ पदार्थ प्रविष्ट नहीं हो सकता। लेकिन जहां पर एक आत्मा है वहां दूसरी आत्मा भी प्रवेश कर सकती है जैसे दो दीपक एक साथ एक ही स्थान को आलोकित कर सकते हैं।
आलोचना
जैन दर्शन के आत्मा संबंधी इस विचार की भी आलोचना की जाती है कि इसमें आत्मा और प्राण में अन्तर नहीं किया गया है। आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है फिर भी आत्मा और शरीर में क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं हो सकती। इस प्रकार आलोचकों के अनुसार जैन दर्शन जीव और शरीर के पारस्परिक संबंधों का संतोषजनक व्याख्या नहीं करता।
जैन दर्शन में मोक्ष की अवधारणा
जैन दर्शन के अनुसार जीव का स्वरूप
जैन दर्शन मूल रूप से एक जीवन पद्धति और नीति शास्त्र है। यह आचरण में अहिंसा का, विचार में अनेकांतवाद का, वाणी में स्याद्वाद का और सामाजिक जीवन में अपरिग्रह का समर्थन और उपदेश करता है। जैन तत्वमीमांसा और तर्कशास्त्र उनके नैतिक दर्शन के अनुसार ही विकसित हुए।
जैन दर्शन का जीव सांख्य दर्शन के पुरुष और वेदांतियों की आत्मा की तरह ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। ऊर्ध्वगमन उसका स्वभाव है। वह ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। अपनी नियति का स्वयं निर्माता है। स्वयं के कर्मों के कारण वह बंधन में पड़ता है और खुद के प्रयासों से वह मोक्ष प्राप्त करता है।
जीव जिस शरीर में निवास करता है उसका सहविस्तारी बन जाता है। जैसे दीपक का प्रकाश कमरे के बराबर ही होता है। स्वभाव से जीव में अनंत चतुष्टय निहित है। अनंत दर्शन (श्रद्धा), अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य ये चारों जीव के स्वभाव और स्वरूप में शामिल हैं।
बंधन के कारण
अगर जीव स्वभाव से शुद्ध चैतन्य स्वरूप और अनंत चतुष्टय का स्वामी है तो फिर वह बंधन में कैसे पड़ जाता है? मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चरित्र ये तीन जीव के बन्धन के कारण हैं।
तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में श्रद्धा नहीं रखना मिथ्या दर्शन है। तत्वों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं रखना मिथ्या ज्ञान है। राग और द्वेष से युक्त होकर लिप्तभाव से कर्म करना मिथ्या चरित्र है।
जैन दर्शन के अनुसार कर्म केवल शारीरिक और मानसिक क्रियाएं नहीं हैं, वे वस्तुगत सत्ताएं हैं। कर्म अणु रूप द्रव्य हैं। प्रत्येक कर्म जीव में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य लाता है। कर्म के प्रभाव से जीव में होने वाले परिवर्तनों के दो पहलू होते हैं :- आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ।
कर्म के प्रभाव से जीव में होने वाले आत्मनिष्ठ परिवर्तनों को जैन दर्शन की शब्दावली में ‘भाव‘ कहा जाता है। आत्मनिष्ठ परिवर्तन के समानान्तर ही कर्म जगत में भी परिवर्तन होता है और भाव के अनुरूप कर्म कण जीव में प्रवेश कर जाते हैं और उससे एक रूप होकर उसके वास्तविक स्वरूप को ढक देते हैं।
जैन दर्शन में इस घटना को ‘द्रव्य’ कहते हैं। भाव और द्रव्य को हम केवल विचारों में अलग-अलग कर सकते हैं। वस्तुत: दोनों घटनाएं साथ साथ घटित होती हैं। कर्म कणों के द्वारा जीव के वास्तविक स्वरूप को ढक लिया जाना ही उसका बन्धन है। इस प्रकार जीव के बन्धन का कारण उसके स्वयं के कषाय या विकार युक्त कार्य हैं।
जीव के प्रत्येक अशुभ विचार मात्र के साथ ही कर्मों के कण उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उसके साथ एकरूप होकर उसे बन्धन में डालते हैं।
आस्रव और बंधन
जैन दर्शन के अनुसार जीव के बन्धन से उसके मोक्ष या कैवल्य तक की यात्रा के विभिन्न सोपान इस प्रकार हैं :- आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
कर्म कणों का जीव की ओर प्रवाहित होना आस्रव कहलाता है। आस्रव दो प्रकार के होते हैं – भावास्रव और द्रव्यास्रव।
जीव का किसी कार्य को करने का संकल्प करना भावास्रव है। ऐसे संकल्प के परिणामस्वरूप स्वरूप कर्म कणों का जीव में प्रवेश कर उसके वास्तविक स्वरूप पर आवरण डाल देना द्रव्यास्रव कहलाता है। तार्किक दृष्टि से भावास्रव कारण और द्रव्यास्रव कार्य है, जबकि सामयिक दृष्टि से दोनों घटनाएं एक ही साथ समानांतर रूप से घटित होती हैं।
आस्रव जीव के बन्धन का कारण है। आस्रव के समान ही बन्धन के भावबन्ध और द्रव्यबन्ध ऐसे दो भेद होते हैं। वह मानसिक स्थिति जो कर्मों के जीव में प्रवेश का कारण है भावबन्ध कहलाती है। यह भावास्रव का परिणाम है। इस स्थिति में जीत अपने ही राग-द्वेषों से बंधता है। कर्मों द्वारा जीव के वास्तविक बन्धन को द्रव्यबन्ध कहते हैं। यह कर्म-द्रव्यों का आत्मा या जीव के साथ वास्तविक संयोग है।
मुक्ति की प्रक्रिया
यदि बन्धन का कारण कर्मों का जीव के साथ संबद्ध हो जाना है तो कर्मों का रुक जाना और संबद्ध कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना ही मोक्ष या कैवल्य की ओर पहला कदम है। अतः साधक के लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि जो कर्म आत्मा में प्रवेश कर रहे हैं उन्हें रोक दिया जाए। कर्मों के आत्मा में प्रवेश को रोकने की प्रक्रिया को संवर कहते हैं।
मोक्ष के लिए जीव में कर्मों के प्रवेश को रोकना ही पर्याप्त नहीं है। जिन कर्मों ने पहले से ही जीव को ढक कर रखा है, ऐसे कर्मों का नाश किए बिना मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता। पहले से ही संबद्ध कर्मों का जीव को छुड़ाना निर्जरा कहलाती है।
जब किसी जीव में नये कर्मों का आस्रव रुक जाता है और पुराने कर्मों की निर्जरा पूर्ण हो जाती है तो जीव मुक्त हो जाता है और उसी क्षण तीन घटनाएं एक साथ घटित होती हैं। जीव का शरीर से अलग हो जाना, मुक्त हो कर ऊर्ध्वगमन करना और लौकिक आकाश के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाना, जिसे जैनदर्शन में सिद्धशिला कहा गया है।
यह मुक्त जीवों का प्रदेश है। मोक्ष की अवस्था में जीव अपने वास्तविक स्वरूप अर्थात् अनन्त चतुष्टय का साक्षात्कार कर लेती है।
संक्षेप में, जैन दर्शन के अनुसार जीव या आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। कर्म कणों के कारण जीव के वास्तविक स्वरुप कर आवरण पड़ जाता है। यही बन्धन है। मुक्त अवस्था में जीव कर्म कणों के प्रभाव से छूट जाता है। जीव में नये कर्मों के आस्रव को रोकना संवर कहलाता है। जबकि पहले से निहित कर्मों के दुष्प्रभाव को समाप्त करना निर्जरा कहलाती है। जब निर्जरा की प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो जीव मुक्त हो कर अपने वास्तविक स्वरूप अनन्त चतुष्टय का साक्षात्कार कर पाता
जब तक जीवन है कर्मों का संवर रूक नहीं सकता।सांस लेने से हिलने डुलने तक कर्म बंधन होते ही रहेंगे। अतःनिर्जरा करने के लिए आज जीवन आवश्यक है व जीवन के लिए श्वसन आदि हिंसा आवश्यक है फिर इन उपार्जित कर्मों की निर्जरा बिना प्राण के कैसे संभव है। ग न चिंतन के लेख के लिए साधुवाद।