गुप्त साम्राज्य : राजनीतिक इतिहास

गुप्त साम्राज्य का संक्षिप्त राजनीतिक इतिहास

  • गुप्त संभवतः कुषाणों के सामंत थे तथा कुषाणों के बाद गुप्तों ने उनकी जगह ले ली।
  • गुप्त वंश का पहला राजा श्रीगुप्त हुआ।
  • श्रीगुप्त संभवतः साधारण सामंत था।
  • श्रीगुप्त का पुत्र घटोत्कच गुप्त था।
  • घटोत्कच गुप्त ने महाराज की उपाधि धारण की।
  • घटोत्कच गुप्त का पुत्र चंद्रगुप्त था। गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक चंद्रगुप्त प्रथम को माना जाता है।
श्रीगुप्त (सामंत)240-280 ई०
घटोत्कच गुप्त (महाराज)280-319 ई०
चंद्रगुप्त (महाराजाधिराज)319-335 ई०
समुद्रगुप्त (सम्राट)335-375 ई०
रामगुप्त375 ई०
चंद्रगुप्त द्वितीय375-414 ई०
कुमारगुप्त प्रथम महेंद्रादित्य415-454 ई०
स्कंदगुप्त455-467 ई०
पुरुगुप्त
बुधगुप्त
नरसिंहगुप्त बालादित्य
कुमारगुप्त तृतीय

चंद्रगुप्त प्रथम (319-335 ई०)

  • चंद्रगुप्त प्रथम ही गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था। चंद्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। चंद्रगुप्त प्रथम के राज्यारोहण के समय (319/20 ई०) से गुप्त संवत् प्रारंभ माना गया है।अति सम्मानित लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमार देवी से चंद्रगुप्त प्रथम का विवाह हुआ। इस विवाह के बाद लिच्छवी का राज्य चंद्रगुप्त को मिला।

समुद्रगुप्त (335-375 ई०)

  • चंद्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना। समुद्रगुप्त कुमारदेवी से पैदा हुआ था। समुद्रगुप्त लिच्छवी वंश का नाती होने में गर्व महसूस करता था इसलिए उसने अपने सिक्कों में स्वयं को लिच्छवी दौहित्र कहा है। समुद्रगुप्त का समय भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक उत्थान का समय था। समुद्रगुप्त ने दिग्विजय की नीति को अपनाया। इससे गुप्त साम्राज्य का काफी विस्तार हुआ।

हरिषेण और प्रयाग प्रशस्ति

  • हरिषेण समुद्रगुप्त का दरबारी कवि था। हरिषेण ने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की। हरिषेण द्वारा लिखित इलाहाबाद प्रशस्ति उसी स्तंभ पर खुदा है जिसमें अशोक का शिलालेख है। हरिषेण ने समुद्रगुप्त की सैनिक सफलताओं का प्रयाग प्रशस्ति में उल्लेख किया है।
  • अकबर ने इसे कौशाम्बी से हटाकर इलाहबाद के अपने किले में स्थापित किया इस पर उसके दरबारी बीरबल का भी लेख उत्कीर्ण है। समुद्रगुप्त के लेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि गुप्तकालीन ब्राह्मी है। यह चम्पू शैली अर्थात गद्य व पद्य दोनों में है। परन्तु वर्तमान में केवल गद्यात्मक भाग सुरक्षित है।

विजय अभियान

  • समुद्रगुप्त के द्वारा जीते गए राजाओं और देशों को पांच समूहों में बांटा जा सकता है :- गंगा यमुना दो आब के राज्य; पूर्वी हिमालय के राज्य; नेपाल, असम बंगाल आदि; पूर्वी विंध्य क्षेत्र के आटविक (जंगल क्षेत्र वाले) राज्य; पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के राज्य; शक और कुषाण जो अफगानिस्तान में राज्य करते थे।
  • प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की सामरिक सफलताओं का विवरण मिलता है। हालांकि इससे विजय अभियानों के तिथि क्रम का ज्ञान नहीं होता परंतु यह मान लिया जाना चाहिए कि समुद्रगुप्त ने सबसे पहले निकटवर्ती राज्यों पर अधिकार किया होगा।

आर्यावर्त विजय

  • समुद्रगुप्त ने सबसे पहले आर्यावर्त के राजाओं को हराया। इनमें अच्युत, नागसेन, गणपति नाग और कोटकुल कोई राजा प्रमुख थे।
  • नागसेन मथुरा या पद्मावती का नागवंशी शासक था। कोतकुल के राजा जिसके नाम का पता नहीं चल सका है को समुद्रगुप्त ने उसकी राजधानी में जाकर (संभवतः कौशंबी के युद्ध में) पराजित किया। इनको हरा कर समुद्रगुप्त ने गंगा यमुना दो आब में अपनी सत्ता स्थापित किया।

आटविक राज्यों पर विजय

  • प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार आर्यावर्त के राजाओं को युद्ध में पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों को युद्ध में पराजित करके अपना परिचारक बना लिया। ये आटविक राज्य कौन से थे और इनका शासक कौन-कौन था यह प्रयाग प्रशस्ति में नहीं बताया गया है। डॉ फ्लीट के अनुसार आधुनिक गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक के जंगली क्षेत्रों वाले राज्य ही आटविक राज्य थे। आटविकों पर इस विजय से समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया।

दक्षिणापथ विजय

  • उत्तर के शासकों को पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के 12 राज्यों को अलग-अलग युद्धों में हराया।
  • कोसल के महेंद्र :- यह वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर, रायपुर क्षेत्र का राजा था।
  • महाकांतार का व्याघ्रराज :- यह संभवतः कांकेर-बस्तर क्षेत्र का नल राजा था।
  • कोराद का मंतराज।
  • महेंद्रगिरी :- पिष्टपुर को वर्तमान पीठापुरम से जोड़ा जाता है, जो गोदावरी जिले में है।
  • कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त :- गंजाम जिला।
  • एरंडपल्ल का दमन।
  • कांची का विष्णुगोप।
  • अवमुक्त का नीलराज।
  • वेंगी का हस्तिवर्मन :- कृष्णा जिला।
  • पालक्क का उग्रसेन :- नेल्लौर जिला।
  • देवराष्ट्र का कुबेर :- संभवतः विजगापट्टनम।
  • कुरुस्थल का धनंजय :- कुट्टलुरु, उत्तरी अर्काट जिला।
  • समुद्रगुप्त ने उक्त सभी राजाओं को पराजित जरूर किया लेकिन उनका राज्य वापस कर दिया। हरिषेण ने दक्षिणापथ के राज्यों के प्रति इस नीति को ग्रहणमोक्षानुग्रह नाम दिया है। इस नीति के अनुसार पहले युद्ध के द्वारा किसी राज्य पर कब्जा कर लिया जाता था फिर उस राज्य के राजा को मुक्त कर दिया जाता था तथा उसका राज्य क्षेत्र उसे वापस कर दिया जाता था।

आर्यावर्त का दूसरा अभियान

  • आर्यावर्त के शासकों ने समुद्रगुप्त की दक्षिण में व्यस्तता का लाभ उठाकर अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयास किया । उत्तर भारत के नौ राज्यों ने एक संघ बना लिया, अतः दक्षिण अभियान के बाद समुद्रगुप्त ने इन नौ शासकों को युद्ध में पराजित किया। इनमें से कुछ वे शासक भी थे जिन्हें समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के प्रथम अभियान में पराजित किया था। समुद्रगुप्त ने इन विद्रोही राजाओं को पूर्णतः पराजित कर उनके राज्यों को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। समूल नष्ट किए गए राजाओं के नाम इस प्रकार हैं :-
  • रुद्रदेव :- यह वाकाटक रूद्रसेन प्रथम था।
  • मतिल बुलंदशहर क्षेत्र का राजा था।
  • नागदत्त, और गणपति नाग भारशिव वंशी नाग शासक थे।
  • चंद्रवर्मा पुष्कर का राजा था।
  • बलवर्मा कोटकुल का राजा था।
  • नंदी, अच्युत, और नागसेन

सीमावर्ती राज्यों पर प्रभाव

  • समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का प्रभाव सीमावर्ती राज्यों पर भी पड़ा और समतट, डबाक, कामरूप जैसे पूर्वी प्रान्त व मालव, आर्जुनायन जैसे गणतांत्रिक राज्यों ने सर्वकरदान, आलाकरण और प्राणागमन के द्वारा उसके प्रचंड शासन को परितुष्ट करने की चेष्टा की। सुदूर दक्षिण के सिंहल शासक और उत्तर पश्चिम के शक मुरुन्ड ने भी तीन विधियों से समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की:
    1. आत्मनिवेदन: गुप्त सम्राट के सामने स्वयं हाजिर होना।
    2. कन्योपायनं: अपनी पुत्री का राजघराने में विवाह।
    3. गरुमदंक: अपने विषय के लिए गरुड़ अंकित मुहर से शासनादेश प्राप्त करना।

समुद्रगुप्त के दिग्विजय के मार्ग के बारे में मतभेद हैं पर यही माना जाता है की गंगा-यमुना दो-आब से आरम्भ होने के बाद वह बंगाल की खाड़ी के तटवर्ती प्रदेशों से होता हुआ दक्षिण की ओर बढ़ा इसके बाद मध्य भारत के आटविक राजाओं को परास्त कर उड़ीसा तट की ओर बढ़ा वहां से गंजाम, विशाखापत्तनम, गोदावरी, कृष्णा और नेल्लौर से होता हुआ कांजीवरम (मद्रास) के पल्लव राज्य तक पहुँच गया। यहाँ से वह पश्चिमी समुद्र तट की ओर न जाकर वापस अपनी राजधानी पाटलिपुत्र आ गया।

चीनी सूत्रों से ज्ञात होता है कि लंका-नरेश श्रमेघवर्ण ने समुद्रगुप्त के पास दूत भेजकर बोध गया में विहार बनवाने की आज्ञा मांगी थी। जिसे समुद्रगुप्त ने स्वीकृति दे दी थी।

अपनी विजयों के उपरांत समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया जिसका परिचय सिक्कों और उसके उत्तराधिकारीयों के अभिलेख से मिलता है।

समुद्रगुप्त के सिक्कों पर अप्रतिरथ, व्याघ्रपराक्रम:, अश्वमेघ पराक्रम: पराक्रमांक जैसे विरुद मुद्रित थे। प्रयाग-प्रशस्ति में गुप्तों के तीन पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं।

  1. हरिषेण: यह संधि विग्रहिक (युद्धमंत्री), कुमारामत्य और महादंडनायक के पद पर था।
  2. ध्रुवमुर्ती: यह हरिषेण का पिता बन्धनागारध्यक्ष था।
  3. तिलभट्टक: यह भी महादंडनायक था।

डॉ मजुमदार के अनुसार समुद्रगुप्त बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु का आश्रयदाता था।

समुद्रगुप्त के संगीत प्रेम की पुष्टि उसकी वीणा-शैली की मुद्रा से होती है। वह एक विद्वान भी था। उसे ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त थी। समुद्रगुप्त को ‘समरशत’ (100 युद्धों का विजेता) भी कहा जाता है। उसे स्मिथ ने ‘भारत का नेपोलियन’ भी कहा।

रामगुप्त

समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल, कायर एवं अयोग्य था। वह शकों द्वारा पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर लिया तथा इस संधि की एक शर्त के रूप में अपनी पत्‍नी ध्रुवस्वामिनी या ध्रुवदेवी को शक राजा को भेंट में दे दिया था । लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्‍ति था। वह ध्रुवस्वामिनी के वेश में शक राजा के पास गया तथा उसे मार गिराया। इसके बाद ‌चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी। उसकी पत्‍नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा।

चन्द्रगुप्त द्वितीय (375 ई.-415 ई०)

रामगुप्त के बाद उसका छोटा भाई, चन्द्रगुप्त द्वितीय सम्राट बना। साँची के अभिलेख में उसे देवराज कहा गया है। वाकाटक लेखों में उसे देवगुप्त कहा गया है।

विवाह सम्बन्ध

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने विवाह संबंधो और विजयों के द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा अपनी राजनितिक स्थिति को मजबूत किया –

  1. नाग वंश: चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग वंश की राजकन्या कुबेर नागा से विवाह किया। इसी से प्रभावती का जन्म हुआ।
  2. वाकाटक वंश: चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक रुद्रसेन द्वितीय से किया। रुद्रसेन की मृत्यु के बाद अपने पुत्र के नाम पर प्रभावती गुप्त स्वयं शासन करने लगी।
  3. कदम्ब वंश: मैसूर के उत्तरी भाग में कुंतल राज्य पर कदम्बों का शासन था। कदम्ब नरेश काकुस्थवर्मन ने अपनी पुत्रियों का विवाह गुप्त वंश में किया।

शक विजय

388 से 397 ई० के बिच चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिम मालवा और गुजरात में सत्तारूढ़ विदेशी शकों के शासक रुद्रसिंह तृतीय को पराजित किया। इस कारण चन्द्रगुप्त द्वितीय को शकारि भी कहा जाता है। शक विजय के पश्चात चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

मेहरौली का लौह स्तम्भ

इस स्तम्भ लेख में चन्द्र नामक किसी शासक की विजय कीर्ति अंकित है। इस चन्द्र की पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के रूप में की जाती है। इस लेख में राजा चन्द्र द्वारा सप्त-सिन्धु पारकर बाह्लिकों के विरुद्ध और पूर्व के बंग शासकों के विरुद्ध विजय का उल्लेख है।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्न

  1. कालिदास – साहित्यकार
  2. धन्वन्तरि – चिकित्सक
  3. क्षपणक – जैन विद्वान
  4. अमरसिंह – कोशकार
  5. शंकु – ज्योतिषाचार्य
  6. वेताल भट्ट – जादूगरी एवं तंत्र साधना
  7. घटकर्पर – कवि
  8. वराहमिहिर – खगोलशास्त्री
  9. वररुचि – साहित्यकार।

चन्द्रगुप्त के समय में ही चीनी यात्री फाह्यान 399 ई० में भारत आया।

कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य (415-455 ई०)

चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त शासक बना। इस ने पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल किया। गुप्त साम्राज्य का पतन इसी के समय से शुरू होता है। कुमारगुप्त प्रथम ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई।

स्कंदगुप्त (455-467 ई०)

जूनागढ़ अभिलेख से स्पष्ट होता है कि इसने चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा निर्मित सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया।

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