गांधार कला शैली
कुषाण काल का मूर्तिकला की दृष्टि से खास महत्व है। इस समय मूर्तिकला के दो प्रमुख केंद्र थे; पहला गांधार तथा दूसरा मथुरा। यहां हम गांधार शैली के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।
कुषाण काल में बौद्ध धर्म के दो संप्रदाय प्रचलित थे एक हीनयान और दूसरा महायान संप्रदाय। महायान संप्रदाय बौद्ध धर्म का नव विकसित संप्रदाय था। इसी संप्रदाय के प्रभाव से कला के क्षेत्र में एक नई शैली का विकास हुआ। इस शैली को कुषाण नरेशों ने आश्रय प्रदान किया। कनिष्क के शासनकाल में विशेष रूप से यूनानी कला से प्रभावित विभिन्न बौद्ध विहारों, स्तूपों एवं प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। गांधार प्रदेश महायान का केंद्र था। इस प्रांत में सभी संस्कृतियों जैसे भारतीय, यूनानी, चीनी आदि मिलती हैं। इस कारण गांधार प्रदेश की कला पर पश्चिम एवं पूर्व का प्रभाव हुआ है।
गांधार कला के प्रमुख केंद्र पेशावर के पास बामियान, स्वात घाटी में हेड्डा तथा अफगानिस्तान में जलालाबाद इत्यादि हैं।
गांधार कला के विभिन्न नाम
गांधार प्रांत में विकसित होने के कारण इस कला को गांधार कला कहा जाता है और इस कला का संबंध यूनानी कला से होने के कारण इसको हिंद-यूनानी अथवा ग्रीक-रोमन कला भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त गांधार कला को इंडो-हेलेनिक या ग्रीक बुद्धिस्ट कला भी कहा जाता है।
गांधार कला के प्रतिपाद्य विषय
इस कला में धार्मिक विषयों को अभिव्यक्त करने के लिए यूनानी शैली को प्रयुक्त किया गया है। महात्मा बुद्ध की असंख्य प्रतिमाओं का निर्माण गांधार शैली में हुआ। गांधार शैली की कुछ यक्ष मूर्तियां भी उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। यक्ष की बनावट यूनानी है। कुषाण काल में इसी शैली में व्यक्ति विशेष की प्रतिमाएं भी बनाई गईं।
गांधार कला का समय
गांधार शैली का प्रचलन प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्ध से पांचवीं शती तक रहा। लेकिन गांधार शैली में सर्वोत्कृष्ट कार्य द्वितीय शताब्दी ईस्वी में कनिष्क एवं हुविष्क के शासनकाल में हुआ।
गांधार शैली का विकास
गांधार शैली का विकास दो चरणों में हुआ-
- पहली शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी तक इस काल में गांधार कला प्रेरणाहीन तथा भावशून्यता से ग्रसित थी। इसमें शारीरिक अंगों के वास्तविक अंकन पर जोर दिया गया और भावों के प्रदर्शन की अवहेलना की गई। इस काल में मूर्तियों का निर्माण काले स्लेटी रंग या हल्के भूरे रंग के पत्थर से किया गया।
- तीसरी-चौथी शताब्दी तक इस कला के विकास का दूसरा चरण रहा। इस काल की प्रतिमाओं में भावुकता, ओज आदि गुण दिखाई देने लगे। इस समय गांधार कला अत्यंत परिष्कृत हो चुकी थी तथा भारतीय शैली के समीप पहुंच चुकी थी।
प्राप्त प्रतिमाएं
गांधार कला में निर्मित प्रतिमाएं देश के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त हुई हैं। जैसे दीपंकर, जातक, बुद्ध का जन्म, नाग, अपलाल (एक नाग) इत्यादि। महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित प्रतिमाएं, मथुरा के सप्त ऋषि टीले से प्राप्त एक स्त्री की प्रतिमा। इस स्त्री का मस्तक गोलाकार है। गले में दो हार पहनी हुई है। इस प्रतिमा का पहनावा पूरी तरह यूनानी है।
गांधार शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है तपस्या में मग्न भगवान बुद्ध की प्रतिमा। भगवान बुद्ध को कठोर तपस्या में लीन दर्शाया गया है। महात्मा बुद्ध का शरीर हड्डियों का ढांचा दिख रहा है। बुद्ध को एक ऊंचे आसन पर बैठाया गया है। यह आसन पत्थर से निर्मित है। बुद्ध के दोनों हाथों में कोहनियों पर होकर दुपट्टा पड़ा हुआ है। इस प्रतिमा में बुद्ध की क्षीणकाया का वास्तविक चित्रण हुआ है। लेकिन महात्मा बुद्ध के मुख पर तपस्या के ओज को नहीं दर्शाया गया है। बर्लिन के संग्रहालय में रखी गई महात्मा बुद्ध की प्रतिमा से शांति का भाव टपकता हुआ परिलक्षित होता है। इसके अतिरिक्त लाहौर संग्रहालय में रखी खड़कधारी कुबेर की ऊंची प्रतिमा तथा खड़े बोधिसत्व की प्रतिमा भी प्रसंशनीय हैं।
गांधार कला शैली की विशेषताएं
- यह कला मात्र बौद्ध धर्म तक ही सीमित थी। महात्मा बुद्ध गांधार कला के मुख्य नायक हैं।
- गांधार कला यूनानी शैली से प्रभावित थी। कलाकार मन से तो भारतीय लेकिन मस्तिष्क से यूनानी थे। इस कारण बुद्ध की प्रतिमाएं अपोलो की प्रतिमाओं से मिलती-जुलती हैं।
- इस शैली में भगवान बुद्ध एक राजा लगते हैं। उन्हें स्वर्ण जटित वस्त्रों को पहने हुए दर्शाया गया है जो कि भारतीय परंपरा के बिलकुल विपरीत है।
- गांधार शैली में कहीं-कहीं महात्मा बुद्ध को भी बोधिसत्व के रूप में अंकित किया गया है।
- गांधार कला शैली में बोधिसत्व की प्रतिमाओं को पर्याय: खड़ी अवस्था में दर्शाया गया है लेकिन महात्मा बुद्ध को पद्मासन में अंकित किया गया है।
- प्रतिमाएं स्लेटी पत्थर से निर्मित हैं।
- इस शैली में मानव शरीर का यथार्थ रूप में चित्रण किया गया है तथा अंग-प्रत्यंग और मांसपेशियों की ओर विशेष ध्यान दिया गया है।
- बालों का अंकन यूनानी शैली से किया गया है।
- बुद्ध के मुख मंडल के चारों ओर आभामंडल बनाया गया है।
- मोटी वस्त्रों में सलवटों को अत्यंत बारीकी से दर्शाया गया है।
- गांधार कला शैली में सुंदर प्रतीकों एवं अलंकरणों का प्रयोग किया गया है।
- इस शैली की प्रतिमाएं प्रायः बिना लेख के हैं।
- इस शैली में श्रृंगार रस की प्रतिमाओं का पूर्ण अभाव है।
- गांधार कला शैली में अभिप्राय और विषय भारतीय है लेकिन अलंकरण यूनानी हैं।
गांधार कला शैली लगभग पांच शताब्दियों तक विकसित होती रही बाद में गुप्तकालीन कला ने गांधार कला को अपने में समाहित कर लिया।
Impressive answer
बहुत ही अच्छा है|
Very nice