रेने देकार्ते का दर्शन

रेने देकार्ते

रेने देकार्ते को आधुनिक पाश्चात्य दर्शन का जनक माना जाता है। वे यूरोपीय दर्शन में बुद्धिवाद के प्रवर्तक भी थे। बुद्धिवादी विचारधारा के अनुसार दर्शन शास्त्र में भी अनिवार्य, सार्वभौमिक और निश्चित ज्ञान की खोज होनी चाहिए। गणित में इस प्रकार का ज्ञान होता है। अतः दर्शन को भी गणित को आदर्श मानते हुए आगे बढ़ना चाहिए। बुद्धिवाद के अनुसार हमारे मन में कुछ जन्मजात प्रत्यय होते हैं।

ये अनुभव से पहले के होते हैं। इन्हीं अनुभवपूर्व जन्मजात प्रत्ययों के आधार पर निगमन की पद्धति से ज्ञान का महल खड़ा होता है। बुद्धिवाद के अनुसार अनुभव से प्राप्त ज्ञान में निश्चयात्मकता तथा अनिवार्यता का अभाव होता है। प्राकृतिक विज्ञान अनुभवात्मक ज्ञान पर आधारित होते हैं। अतः इनसे केवल संभाव्य ज्ञान प्राप्त होता है। अनिवार्य और निश्चित ज्ञान केवल गणित में संभव है। इसलिए दर्शन को गणितीय पद्धति पर आधारित होना चाहिए।

रेने देकार्ते की संदेह विधि

अनिवार्य तथा निश्चित ज्ञान की खोज के लिए देकार्ते संदेश विधि को अपनाते हैं। रेने देकार्ते के अनुसार सब कुछ पर संदेह किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। हमारे अनुभव भी कई बार गलत होते हैं। अनुभव से प्राप्त ज्ञान में भ्रम की गुंजाइश रहती है। पारंपरिक ज्ञान और मान्यताएं कई बार गलत साबित होती हैं। इसी तरह तर्क बुद्धि से प्राप्त ज्ञान भी संदेहातीत नहीं होता।

कई बार विचार और तर्क के नियमों की अवहेलना होने से तार्किक ज्ञान भी त्रुटिपूर्ण हो जाता है। इसलिए चिंतन करते समय संदेह को एक औजार के रूप में अपनाना चाहिए। ताकि संदेहरहित ज्ञान को प्राप्त किया जा सके। लेकिन देकार्ते संशयवादी नहीं है। वह तो गणित की तरह निश्चित और संशयरहित ज्ञान को दर्शन में भी संभव मानते हैं। जो बुद्धिवाद का प्रवर्तक है वह संशयवादी नहीं हो सकता। देकार्त के यहां संदेह या संशय केवल विधि है, उपलब्धि नहीं।

समीक्षा

उस समय स्वतंत्र चिंतन पर कठोर धार्मिक नियंत्रण था । देकार्ते के द्वारा हर बात को संदेह के दायरे में विचार करना बहुत ही क्रान्तिकारी कदम था। परंतु देकार्ते स्वयं अपनी संदेह विधि का अतिक्रमण करते रहे।


मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं। (कागिटो एरगो सम)

रेने देकार्ते के अनुसार अनुभव से प्राप्त हमारा ज्ञान कई बार भ्रमपूर्ण होता है। पारंपरिक ज्ञान में लोक विश्वास का मिश्रण हो सकता है। तर्क और गणित से प्राप्त ज्ञान भी विचार के नियमों की अवहेलना करने के कारण त्रुटिपूर्ण हो सकता है। इसलिए सब कुछ पर संदेह किया जाना चाहिए। लेकिन एक ऐसी चीज है जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता और वह है स्वयं संदेह कर्ता। इस प्रकार मैं संदेह करता हूं इसलिए मैं हूं।

यह कथन आत्मा के अस्तित्व को स्वत: प्रमाणित सिद्ध करता है। संदेह की प्रक्रिया में और व्यापक रूप से चिंतन की प्रक्रिया में जो संदेह कर्ता या चिंतन कर्ता है उसके अस्तित्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि आत्मा के बिना चिंतन संभव ही नहीं है। यहां चिंतन शब्द को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए जिसमें कल्पना, स्मृति, संवेदना आदि आ जाते हैं।

समीक्षा

रेने देकार्ते का यह कहना कि मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं। इस पूर्व मान्यता पर आधारित है कि जो सोचता है वह अवश्य होता है। इस आधार पर हम किसी मन मस्तिष्क के अस्तित्व को तो स्वीकार कर सकते हैं। परंतु मानसिक क्रियाओं के आधार पर अजर अमर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। जैसा कि कांट ने भी कहा है, ज्ञान की आवश्यक पूर्व शर्त के रूप में हम भले ही तार्किक आत्मा को स्वीकार कर लें, परंतु किसी तत्वमीमांसीय आत्मा को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया जा सकता।

आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए यह एक पुरानी और लचर युक्ति है। देकार्त से पहले संत आगस्टाइन और केम्पानेला यह तर्क प्रस्तुत कर चुके हैं।

संक्षेप

देकार्ते ने दार्शनिक चिंतन को विश्वासों और मान्यताओं से मुक्त रखने हेतु बौद्धिकता पर बल दिया। वे स्वयं गणितज्ञ थे तथा दर्शन में भी गणित की तरह अनिवार्य और निश्चित ज्ञान की खोज करना चाहते थे। अतः उनके विचार में ऐसा कोई भी पूर्व निर्धारित सत्य नहीं है जिस पर संदेह नहीं किया जा सके। सब कुछ संदेह के दायरे में आना चाहिए। क्योंकि हमारे अनुभव भ्रमपूर्ण हो सकते हैं तथा विचार त्रुटिपूर्ण। अतः सब पर संदेह किया जाना चाहिए। परंतु संदेह कर्ता आत्मा पर संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि इसके बिना कोई भी संदेह या चिंतन असंभव है। अतः मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।

दोस्तों के साथ शेयर करें

Leave a Comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *