भारत में संवैधानिक विकास

भारत में संवैधानिक विकास

भारत में संवैधानिक विकास की शुरुआत ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना (1600 ई०) से माना जा सकता है। ईस्ट इंडिया कंपनी अंग्रेज व्यापारियों का एक समूह था। इसे ब्रिटिश सरकार ने भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। व्यापार की रक्षा के नाम पर यूरोपीय कंपनियों ने भारत में किलेबंदी करना और सेना रखना शुरू कर दिया। अपनी सैनिक शक्ति के दम पर ईस्ट इंडिया कंपनी जल्द ही भारतीय रियासतों के राजनीतिक एवं आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगी और भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में एक मुख्य राजनीतिक ताकत बन गई। 1764 के बक्सर के युद्ध तथा 1765 की इलाहाबाद की संधि से तो कंपनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सर्वेसर्वा हो गई। भारत में कंपनी की आर्थिक और राजनीतिक सफलताओं एवं कारगुजारियों की वजह से ब्रिटेन में यह जरूरी समझा गया कि भारत में उसके क्रियाकलापों नियंत्रित किया जाए।

रेग्युलेटिंग एक्ट: 1773

  • रेग्ययुलेटिंग एक्ट जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार तथा संसद ने पहली बार कंपनी की गतिविधियों को रेग्युलेट करने या नियंत्रित करने के लिए नियम बनाकर हस्तक्षेप किया।
  • रेग्युलेटिंग एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा तथा बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नरों को बंगाल के गवर्नर जनरल के नियंत्रण में रखा गया।
  • 1773 में कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। इसका कार्य क्षेत्र बंगाल, बिहार और उड़ीसा तक था। सर एलीजा इम्पे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
  • कंपनी के कर्मचारियों निजी व्यापार नहीं कर सकते थे।
  • वे उपहार भी नहीं ले सकते थे।
  • कोर्ट आफ डायरेक्टर का कार्यकाल 1 वर्ष से बढ़ाकर 4 वर्ष कर दिया गया।

पिट्स इंडिया एक्ट: 1784

  • यह अधिनियम ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विलियम पिट जुनियर द्वारा लाया गया था।
  • रेग्युलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए यह अधिनियम पारित किया गया।
  • पिट्स इंडिया एक्ट में कंपनी प्रशासित क्षेत्र को पहली बार ब्रिटिश राज्य क्षेत्र कहा गया।
  • बंगाल के गवर्नर जनरल की नियुक्ति पहले की तरह बोर्ड आफ डायरेक्टर्स करता था परंतु इससे पहले बोर्ड आफ कंट्रोल की अनुमति लेना जरूरी हो गया। और इस प्रकार नियुक्त गवर्नर जनरल को सम्राट जब चाहे वापस बुला सकता था।
  • गवर्नर जनरल के कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार​ से घटाकर तीन कर दिया गया। एक सदस्य प्रधान सेनापति होता था।
  • सपरिषद् (कौंसिल सहित) गवर्नर जनरल को युद्ध, राजस्व तथा राजनीतिक मामलों में बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी पर अधिक नियंत्रण प्रदान किया गया।
  • इसी प्रकार गवर्नर जनरल बिना बोर्ड आफ कंट्रोल की अनुमति के देशी राज्यों के प्रति युद्ध या शांति या किसी अन्य विषय में किसी भी प्रकार की नीति नहीं अपना सकता था।
  • बाद में एक्ट में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि यदि गवर्नर जनरल जरूरी समझे तो अपनी परिषद के निर्णय को अस्वीकार कर दे।
  • पिट के भारत अधिनियम के द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार का पहले से अधिक नियंत्रण स्थापित किया गया। ऐसा एक प्रकार का दोहरा शासन स्थापित करके किया गया।
  • इंग्लैंड में एक नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड आफ कंट्रोल) की स्थापना की गई। इसमें छः सदस्य होते थे। इंग्लैंड का वित्त मंत्री तथा राज्य सचिव (सेकेट्री आफ स्टेट) इसके सदस्य होते थे। चार अन्य सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। यह नियंत्रण बोर्ड कंपनी के संचालकों के बोर्ड (बोर्ड आफ डायरेक्टर्स) से ऊपर होता था। कंपनी के मालिकों का बोर्ड भी बोर्ड आफ कंट्रोल के नियंत्रण में होता था। बोर्ड आफ कंट्रोल को कंपनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधी सभी मामलों की देखरेख तथा नियंत्रण-निर्देशन का अधिकार था। बोर्ड आफ कंट्रोल कंपनी के संचालकों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस प्रकार बोर्ड आफ कंट्रोल के माध्यम से ब्रिटेन की सरकार का कंपनी की गतिविधियों पर मजबूत नियंत्रण स्थापित हो गया। कंपनी के संचालक मंडल को भारत से प्राप्त तथा भारत भेजे जाने वाले सभी कागजात की प्रतिलिपि बोर्ड आफ कंट्रोल के समक्ष रखनी पड़ती थी, जिन्हें वह चाहे तो अस्वीकार भी सकती थी या उसमें परिवर्तन भी करके नया रूप भी दे सकती थी। इस प्रकार बोर्ड आफ कंट्रोल द्वारा स्वीकृत या संशोधित आदेश को संचालक मंडल को मानना ही पड़ता था।
  • इस तरह संचालक मंडल (बोर्ड आफ डायरेक्टर्स​) को बोर्ड आफ कंट्रोल के आदेशों और निर्देशों को मानना ही होता था।
  • इस अधिनियम के द्वारा संचालक मंडल को केवल कंपनी के व्यापारिक कार्यों के प्रबंधन​ की शक्ति प्रदान की गई।
  • संचालक मंडल कंपनी के अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकता था परंतु यदि सम्राट चाहे तो ऐसी किसी भी नियुक्ति को निरस्त भी कर सकता था। लेकिन गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए बोर्ड आफ कंट्रोल की अनुमति लेना आवश्यक था।

1793 का चार्टर एक्ट

  • भारत के साथ व्यापार के कंपनी के अधिकार को 20 वर्षों के लिए और बढ़ा दिया गया।
  • मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी के गवर्नर भी अपने परिषदों के निर्णयों को निरस्त करने का अधीकार दिया गया।

1813 का चार्टर एक्ट

  • इस चार्टर एक्ट के द्वारा भारत के साथ कंपनी के व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। लेकिन चीन के साथ कंपनी के व्यापार और चाय के व्यापार पर एकाधिकार सुरक्षित रखा गया।
  • भारतीयों की शिक्षा के लिए एक लाख रुपए वार्षिक की व्यवस्था की गई।
  • ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गई।

1833 का चार्टर एक्ट

  • कंपनी के चाय के व्यापार के एकाधिकार और चीन के साथ व्यापार के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया तथा कंपनी को पूर्णता राजनीतिक और प्रशासनिक मशीनरी बना दिया गया ।
  • इस चार्टर एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल कहा गया। लार्ड विलियम बैंटिक भारत का प्रथम गवर्नर जनरल बना।
  • एक विधि आयोग का गठन किया गया। लार्ड मैकाले विधि आयोग का प्रथम अध्यक्ष बनाया गया।
  • दास प्रथा गैर कानूनी घोषित हुई।
  • कंपनी के अधीन किसी पद पर नियुक्ति के मामले में भारतीयों से किसी भी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध  किया गया।
  • संपूर्ण भारत के लिए अधिनियम बनाने का अधिकार सपरिषद् गवर्नर जनरल को दिया गया।

भारतीय शासन अधिनियम, 1858

  • इस अधिनियम के द्वारा कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और अब भारत का शासन सम्राट के नाम से किया जाने लगा।
  • भारत का गवर्नर जनरल अब वायसराय कहा जाने लगा, जो सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में भारत का शासन चलाता था।
  • लार्ड कैनिंग पहला वायसराय बना।
  • भारत सचिव का एक नया पद बनाया गया। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का एक सदस्य होता था। 15 सदस्यों का एक भारत परिषद बनाया गया। यह परिषद भारत सचिव को उसके कार्य में सहायता देती थी। नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल को समाप्त कर दिया गया तथा इन दोनों का कार्य भारत सचिव को दे दिया गया।
  • इस तरह 1858 के भारत शासन अधिनियम से द्वैध शासन समाप्त हुआ।

भारतीय परिषद अधिनियम, 1861

  • इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को अपनी परिषद में भारतीय सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार दिया गया। परंतु ये सदस्य न तो बजट पर बहस कर सकते थे और न ही प्रश्न कर सकते थे।
  • अब सपरिषद प्रांतीय गवर्नर अर्थात् बंबई और मद्रास के गवर्नर भी कानून बना सकते थे। यह एक तरह से विकेंद्रीकरण की शुरुआत थी ।

भारतीय परिषद अधिनियम, 1892

  • गवर्नर जनरल की परिषद में गैर सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। परंतु अभी सरकारी सदस्यों का बहुमत बना रहा।
  • सीमित रूप में तथा अप्रत्यक्ष पद्धति से ही सही, अब परिषद के सदस्यों का चुनाव शुरू किया गया। अर्थात् भारत में निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत हो गई।
  • सदस्य गण अब बजट पर बहस कर सकते थे परंतु आर्थिक मुद्दों पर मतदान नहीं कर सकते थे। वे प्रश्न भी कर सकते थे, परंतु पूरक प्रश्न नहीं कर सकते थे। उनके प्रश्नों का उत्तर दिया जाना भी जरूरी नहीं था।
  • यह अधिनियम भारत के किसी भी राजनीतिक गुट को संतुष्ट नहीं कर सका। यहां तक कि नरम दल भी इस अधिनियम से असंतुष्ट रहा।

1909 का भारतीय परिषद अधिनियम

  • भारत सचिव जान मार्ले और वायसराय लॉर्ड मिंटो ने सुधार का एक मसौदा पेश किया जिसके आधार पर 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम पारित हुआ इसलिए इसे मार्ले-मिंटो सुधार भी कहते हैं।
  • 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम के केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं में सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई।
  • गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया।
  • सदस्यों को प्रस्ताव रखने, बजट पर बहस करने, प्रश्न करने तथा मतदान का भी अधिकार दिया गया। लेकिन व्यावहारिक रूप में यह सब अधिकार नहीं थे।
  • सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम की सबसे खराब बात थी। इसके द्वारा मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई, जहां मुस्लिम प्रतिनिधियों का चुनाव केवल मुस्लिम मतदाताओं को करना था। इस तरह अंग्रेजों ने भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर करने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का जहर बो दिए।

मांटेग्यू घोषणा

20 अगस्त 1917 को भारत सचिव मांटेग्यू ने हाउस आफ कामन्स में एक महत्वपूर्ण घोषणा की। यह घोषणा में भारत में अंग्रेजी सरकार के उद्देश्य और नीतियों से संबंधित थी। इसमें मांटेग्यू ने कहा कि भारत में स्वशासी शासनिक संस्थानो का धीरे-धीरे क्रमशः  इस प्रकार विकास किया जाएगा कि भारत  ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में प्रगति करते हुए उत्तरदायी शासन प्रणाली की दिशा में आगे बढ़े तथा शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों की भागीदारी बढ़े। और यह सब भारतीयों के सहयोग तथा जवाबदारी निभाने की क्षमता पर निर्भर करेगा। लेकिन इस दिशा में कब और किस मात्रा में प्रगति होगी इसका निर्धारण भारत सरकार और ब्रिटिश सरकार ही करेंगे।

मांटफोर्ड रिपोर्ट (1918)

भारत सचिव एडविन मांटेग्यू और वायसराय चेम्सफोर्ड ने 1917 के 20,अगस्त की घोषणा​ को लागू करने के लिए एक मसौदा पेश किया। इसे ही मांटफोर्ड रिपोर्ट कहा गया। इसकी मुख्य बातें निम्नलिखित है-

  1. नगरपालिकाओं​, जिला बोर्डों आदि स्थानीय निकायों में पूर्ण लोकप्रिय नियंत्रण।
  2. प्रांतों में आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की स्थापना।
  3. केंद्रीय असेंबली का विस्तार तथा उसमें भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देना।

यही रिपोर्ट 1919 के भारत शासन अधिनियम का आधार बनी। इसे मान्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार भी कहते हैं।

भारत सरकार अधिनियम, 1919

(क) प्रांतों से संबंधित उपबंध:

इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण भाग प्रांतों में दोहरा शासन या द्वैध शासन लागू करना था। इसके लिए शासन के विषयों को प्रांतीय और केंद्रीय सूचियों में बांट दिया गया-

  1. केंद्रीय विषयों में रक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा और टंकण, आयात-निर्यात कर इत्यादि थे।
  2. शांति और व्यवस्था, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, चिकित्सा प्रशासन और कृषि आदि को प्रांतीय विषयों की सूची में शामिल किया गया था।

प्रांतीय विषयों को फिर दो भागों में बांटा गया- हस्तांतरित और आरक्षित। हस्तांतरित विषयों (जैसे, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, अस्पताल, उद्योग, कृषि आदि) का प्रशासन लोकप्रिय मंत्रियों को सौंपा जाना था। जबकि शांति और व्यवस्था, पुलिस, वित्त, भूमि कर और श्रम जैसे कुछ अन्य विषय गवर्नर के लिए आरक्षित किए गए जिनका प्रशासन उसे सरकारी सदस्यों के सहयोग से चलाना था।

प्रांतीय परिषदों का विस्तार भी किया गया तथा निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। मताधिकार का विस्तार किया गया। दुर्भाग्यवश सांप्रदायिक निर्वाचन मंडल को न केवल बनाए रखा गया बल्कि और बढ़ा दिया गया। अब मुसलमानों के साथ-साथ सिखों, यूरोपीयों, भारतीय ईसाइयों तथा एंग्लो इंडियन को भी पृथक प्रतिनिधित्व मिला।

  1. प्रांतों के गवर्नर आरक्षित विषयों में गवर्नर जनरल या भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था। हस्तांतरित विषयों में भी वह सांवैधानिक मुखिया का कार्य न करके अक्सर मंत्रियों की सलाह के विरुद्ध काम करता था। वह किसी भी विधेयक को रोक सकता था तथा विधान मंडल द्वारा अस्वीकृत​ विधेयक को प्रमाणित कर सकता था। वह अध्यादेश जारी कर सकता था। विधान मंडल को भंग करके समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले सकता था। वह विधानमंढल का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा भी सकता था।

(ख) केंद्र में परिवर्तन

केंद्रीय स्तर पर पहले की तरह ही निरंकुश सरकार चलती रही और वह सैद्धांतिक रूप से केवल ब्रिटेन की संसद के प्रति उत्तरदायी थी। केंद्रीय विधान मंडल को द्विसदनात्मक बना दिया गया। मताधिकार अब भी सीमित था। यद्यपि दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत रखा गया परन्तु गवर्नर जनरल की शक्तियां बढ़ा दी गईं। वह कटौतियों का पुनः स्थापन कर सकता था, विधेयकों को प्रमाणित कर सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था।

कमियां: भारत शासन अधिनियम 1919 के द्वारा प्रांतों में लागू किया गया दोहरा शासन बहुत ही भद्दा, भ्रममय और जटिल था। इसके द्वारा बहुत ही चालाकी से भारतीय राजनेताओं को आरक्षित और हस्तांतरित विषयों की चूहा-दौड़ में फंसा दिया गया। इसी तरह केंद्र में गवर्नर जनरल के अत्यधिक शक्तिशाली हो जाने से गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत भी छलावा मात्र था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत शासन अधिनियम 1919 भारतीय जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता था इसलिए शीघ्र ही असहयोग आंदोलन शुरू हो गया।

भारत शासन अधिनियम, 1935

  • प्रांतीय स्वायत्तता भारत शासन अधिनियम 1935 की मुख्य विशेषता थी। अब प्रांतों का शासन लोकप्रिय मंत्रियों की सलाह से गवर्नर द्वारा चलाया जाना था।
  • प्रांतीय और केंद्रीय विधान मंडलों की सदस्य संख्या बढ़ा दी गई।
  • प्रांतों में दोहरा शासन समाप्त कर दिया गया लेकिन इसे केंद्र में लागू कर दिया गया।
  • केंद्र के प्रशासनिक विषयों को दो प्रकारों में संरक्षित और हस्तांतरित में बांटा गया। संरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल सरकारी सदस्यों की सहायता से करता था, जो विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तांतरित विषयों का प्रशासन लोकप्रिय मंत्रियों के द्वारा किया जाता था तो विधानमंडल के सदस्यों में से होते थे और उसी के प्रति जवाबदार होते थे।
  • भारत शासन अधिनियम 1935 में एक अखिल भारतीय संघ का प्रस्ताव था, जो ब्रिटिश भारत के प्रांतों, चीफ कमिश्नरों के क्षेत्रों और देशी रियासतों से मिलाकर बनाया जाना था। लेकिन देशी रियासतों के लिए इस प्रस्तावित संघ में शामिल होना अनिवार्य नहीं होकर वैकल्पिक था इसलिए यह व्यवस्था अमल में नहीं आ सकी।
  • मताधिकार का विस्तार किया गया।
  • पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को और बढ़ाते हुए हरिजनों को भी इसमें शामिल किया गया।
  • बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया।
  • सिंध प्रांत को बंबई से अलग कर दिया गया।
  • ‘बिहार और उड़ीसा’ प्रांत का विखंडन करके बिहार तथा उड़ीसा नाम से दो नए प्रांत बनाए गए।
  • भारत मंत्री के अधिकारों में कटौती की गई तथा ‘भारत परिषद’ को समाप्त कर दिया गया।
  • एक संघीय न्यायालय तथा रिजर्व बैंक आफ इंडिया की स्थापना की गई।

संविधान सभा का गठन

  • केबिनेट मिशन योजना (1946) के अंतर्गत एक संविधान निर्मात्री सभा के गठन का प्रावधान था। जुलाई 1946 में संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हुआ। इसकी प्रथम बैठक 09, दिसंबर 1946 को हुई। संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 माह और 18 दिनों के अथक परिश्रम के बाद भारत का संविधान बनाया। इस संविधान पर 26 नवंबर 1949 को सदस्हयों हस्ताक्षर हुए। संविधान के नागरिकता आदि से संबंधित कुछ उपबंध तत्काल लागू हो गये। संविधान पूर्ण रूप से 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
दोस्तों के साथ शेयर करें

3 thoughts on “भारत में संवैधानिक विकास”

Leave a Comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *